Pages

Wednesday, February 1, 2017

जिस आँगन में

जिस आँगन में खेली मैं उस आंगन को कैसे जर्जर होता देखूँ
जिस ड्योढ़ी पर दीप जलाए  उस को कैसे ढहता देखूँ

सूने सूने टूटे दर्पण में तेरा मेरा बीता  बचपन देखूँ
धूल भरे उन  दीवारों पर अतीत का हर इक पन्ना देखूँ
दरवाज़े की दरारों  से झाँकता  माँ से अपना होता झगड़ा देखूँ
बिस्तर पर बिछी उसी पुरानी  चादर पर अब तक बैठा
वो हम सबका मुस्कुराता लम्हा देखूँ

जिस आँगन में खेली मैं उस आंगन को कैसे जर्जर होता देखूँ
जिस ड्योढ़ी पर दीप जलाए  उस को कैसे ढहता देखूँ

उस आंगन में अब पसरा वो गर्द भरा तन्हा सन्नाटा देखूँ
पीछे आँगन  में  चुप पड़ी वो धूप  का टुकड़ा देखूँ
अल्मारी  में बन्द पड़ी वो भाभी की चूड़ियाँ  देखूँ
बन्द पड़े उस टीवी के रिमोट पर अब तक चढ़ी  पन्नी से
महकती  वो तेरी मेरी खींचातानी देखूँ

जिस आँगन में खेली मैं उस आंगन को कैसे जर्जर होता
जिस ड्योढ़ी पर दीप जलाए  उस को कैसे ढहता देखूँ

टूटती जा रही छत से क्षितिज पर डूबता सूरज देखूँ
ठंडी चादरों पर  वो तारों से की जो हर बात पुरानी देखूँ
लोहड़ी की ठंडी पड़ी राख में बस के रह गई जो
पुरानी  वो  ढोलक की थाप  देखूँ

जिस घर से उठी थी मेरी डोली , जिस घर बजी तेरी शहनाई
उस कैसे मैं ढहता देखूँ
जिस आंगन में बांधे वन्दनवार , जिस दरवाज़े सजाई रंगोली
उसे कैसे मैं जर्जर होता देखूँ
जिस आँगन में खेली मैं उस आंगन को कैसे जर्जर होता देखूँ
जिस ड्योढ़ी पर दीप जलाए  उस को कैसे ढहता देखूँ

मनीषा वर्मा
#गुफ्तगू 

No comments:

Post a Comment