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Wednesday, January 6, 2016

इक क्षण को सिर्फ इंसां बन जाएँ

क्या ये इतना मुश्किल है ... ?

कभी तो हिन्दू मुसलमां  से  परे इन्सां  बन जाएं
मैं तुम्हारी आयतें पढ़ूँ  तुम मेरी गीता  कंठस्थ कर लो
जिस भूमि पर गिरा लहू कुछ मेरा कुछ तुम्हारा
चलो उस भूमि पर कुछ धान लगाएं
संगीने छोड़ आज एक बार हल उठाएं
ये जो जलाती  है हर बस्ती हर घर को निसदिन
उस लगी आग को मिल बुझाएं
जो बीत चुकी सदियों पहले वो बीती बिसरायें
आज इक क्षण को सिर्फ इंसां बन जाएँ
मनीषा 

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