भीगी माटी से उठा कर
अक्षरों को कागज़ पर रख दिया
कविता महक गई
रचना अमृता हो गई
फूली सरसों के बीच से
गुज़र कर आई हैं पंक्तियाँ
और मेरे देश की ज़ुबां हो गई
तुम अक्षर अक्षर होती रही
मुल्क बनता रहा बिगड़ता रहा
दर्द पिरोती साँझ उतरती रही
तुम स्वयं मसीहा होती रही
कोरे कागज़ पर बिखरे
एक मुठ्ठी अक्षर
किरणों को तराशते सूरज
की खोज में भटकते रहे
साहिल दर साहिल
जाने कब तुम दरगाह हो गई
मनीषा
31 October 2005

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