हक़ तो नहीं कि तुम्हे
अपना कह सकूँ
तुम्हारी हो रहूँ इतना
गुरूर भी नही
अपनी पनाहों में
इक गुनाह का पल दे दो
बस दुआ का इक हक दे दो
मेरी रूह को आ जाए चैन
'गर मेरे ज़नाजे को कांधा दे दो
मनीषा
अपना कह सकूँ
तुम्हारी हो रहूँ इतना
गुरूर भी नही
अपनी पनाहों में
इक गुनाह का पल दे दो
बस दुआ का इक हक दे दो
मेरी रूह को आ जाए चैन
'गर मेरे ज़नाजे को कांधा दे दो
मनीषा
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