Pages

Monday, May 16, 2011

कौड़ियों मे बिकता था ईमान

कभी कौड़ियों मे बिकता था ईमान अब नही मिलता
बहुत प्रजातियाँ इस शताब्दी मे विलुप्त हो गयीं
ऐसे ही कुछ शब्द भी बेफूज़ुल से रखे हैं शब्द्कोशों मे
जो अब बेमानी से हो गये
बहुत दिन हुए मेरे मैं से मुलाकात हुए
जाने जीवन की इस आपा धापी मे किस आईने मे खो गया वो
मुखौटे उतारते अब डर लगता है
एक आदत सी हो गयी है चेहरे ओढ़ने की
कहते हैं बड़े हो जाना ही काफ़ी नही
समझदारी का सबूत देना भी पड़ता है
कई बार सच को छुपा झूठ कहना ही पड़ता है
वरना यह लोग हँसेंगे इसलिए मॅच्योर होना ही पड़ता है...
मनीषा

No comments:

Post a Comment