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Monday, April 3, 2023

संगिनी

 बहुत इच्छा होती है वो

दो पल पास बैठे हाथ पकड़े

थोड़ा चलो साथ सैर ही कर आएं

थोड़ा गुनगुनाएं

नौकरी में था अब तक

कहां फुरसत थी

फिर बच्चे और दुनियादारी

वक्त ही कहां मिला

रिटायर हो गया तो वक्त ही वक्त

अब सोचता हूं वो पास बैठे 

हम कुछ बात करें

उसकी बातें शायद चुक चुकी हैं

वो व्यस्त है सुबह का नाश्ता दिन का खाना 

महरी से लगाई बुझाई

इधर साफ उधर पोछ

ना उसे वक्त नहीं मिलता

कितने तो आने जाने वाली हैं

महरी सब्जी वाली कूड़ा ले जाने वाला

सामने गली बुहारने वाला 

दोपहर में आने वाली वो पड़ोसन

कीर्तन मंडली

सबको समय देती है 

मेरे समय हाथ झटक कर कहती है

'जाने दो, बहुत काम है

तुम्हारा क्या फुर्सत ही फुर्सत'

कहीं ले जाना चाहता हूं उसे 

कितना कहती थी चलो ना 

इस बार गर्मी की छुट्टियों में नैनीताल

अब पूछता हूं तो बोलती नहीं है

बस देखती है मुझे जैसे मुझसे परिचय ना हो।

जैसे शायद सारी इच्छाएं उसकी 

मर चुकी हों

अब उसकी  दिनचर्या में 

मैं अपना कोना खोजता रहता हूं

उसके वक्त में अपने हिस्से का समय ढूंढता

 इस पार्क की बेंच से 

नाता जोड़ रहा हूं।


#गुफ़्तगू 


मनीषा वर्मा

2 comments:

  1. नीरु ने अभी मुझे लिंक दिया। बड़ी मार्मिक कविता है। दो और भी पड़ी है,सब मन को छूने वाली हैं। मैंने उपन्यास जय कच्छ को ढूंढने की कोशिश की,। पर सफल नहीं हुआ। विजय सिंह द्वारा लिखित मिलते जुलते शीर्षक से उपन्यास 'जय गंगा' जरूर है जिस पर फिल्म भी बनी है और शायद फ्रेंच भाषा में रूपांतरित भी हुआ है।
    वी के मलिक

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    1. मेरे पास है थोड़ी फटी हुई आपको दूंगी पढ़ने के लिए। कविता की प्रशंसा के लिए धन्यवाद

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