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Friday, March 27, 2015

सदियों से सांझी ये पीर पुरानी है

सदियों से सांझी ये पीर पुरानी है
सखी  तेरी और मेरी एक ही कहानी  है
कुछ अश्रु तेरी आँखों के मेरी आँख में उतर आए
कलम है मेरी पर यह तेरी ज़ुबानी है
सदियों से सांझी यह पीर पुरानी है

मन में विक्षोभ लब पर ख़ामोशी उतारी  है
सखी तूने मैंने जो झेली वही पीर बतानी है
कितने मर्यादा के ज़ेवर पहने रस्में उतारी  हैं
फिर भी दाह  में जलती काया की चीख सुनानी  है
सदियों से सांझी यह पीर पुरानी है

कभी सफेद कभी लाल ओढ़नी में जो दब जाती है
उन  घुटती  सूखी आँखों की तडप आज बतानी है
सौ पर्दों के बीच जो घूरती उन आँखों की लौ बुझानी है
हैवानी पंजो की पकड़ से अपनी लाज छुडानी है
सदियों से सांझी यह पीर पुरानी है

सखी आखिर तो तेरी और मेरी एक ही कहानी है
सदियों से सांझी यह पीर पुरानी है
मनीषा


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