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Tuesday, February 19, 2013

रस्ते पर चलती लोगों की भीड़


रस्ते  पर चलती लोगों की भीड़ 
और भीड़ के बीच पसरे दो हाथ नन्हे काले भद्दे हाथ 
हाथों पर  नाखून चटक कर काले पड़  चुके हैं 
और हथेलियों पर बिखरी पड़ी है 
परत दर परत गर्द 
हाथ पसरते ही रहते हैं  
हर तेज़ कदम की धमक के आगे 
उन हाथों पर रखी  है 
एक बेचारी सी खामोश आवाज़
 जिसकी उम्मीदगी में  झलकती है 
एक अठन्नी की खनक 
भीड़ के आगे फैले हाथ फैलते ही चले जाते हैं 
लाचारी भरी मासूम आंखे देखती रहती हैं 
और भीड़ गुम  होती जाती है 
न जाने कहाँ से कहाँ तक आती है जाती है हर रोज़ 
अब भीड़ में चेहरे नज़र नहीं  आते 
बस आता है नज़र तो बस उस भीड़ के हिस्से बने लोग 
और उनके आगे दया याचना करते  
दो जोड़ पसरे हाथ 
हर तरफ बस सिक्कों की खनक ढूंढते 
हाथ ही हाथ 
भीड़ सिक्के खनकाती कहीं गुम  हो जाती है 
उसे रुकना ठिठकना मंज़ूर न हो जैसे 
रह जाती है तो मन मसोसे 
कूड़े के ढेर में पत्तलें ढूंढते दो  हाथ 
और गर्द फांकती  प्रश्नभरी दो आँखे 
मनीषा 



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