Pages

Thursday, November 29, 2012

दस्तक





बार बार उन बंद दरवाजों पर  दस्तक दे लौट आती हूँ 
बार बार अपनी वेदना से विवश फिर उसी देहरी पर लौट जाती हूँ 
अब परिचित सा लगता है वो दरवाज़ा 
खुलता तो नहीं है 
पर जैसे हर बार पूछ लेता है 
"कैसी हो तुम , फिर लौट आई हो तुम 
तुम एक दम मेरे जैसी हो 
अपने भीतर बंधी गांठो से विवश 
और मैं अपने भीतर मजबूती से लगी सांकल से "
मैं फिर धीमे से कभी जोर से दस्तक दे रूकती  हूँ देर तक 
और पौ  फटने से पहले लौट आती हूँ 

No comments:

Post a Comment