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Wednesday, August 29, 2012

तेरे रिश्तो की डोर बहुत उलझी है


तेरे रिश्तो की डोर बहुत उलझी है
सुलझाते सुलझाते मेरे बालों की सफेदी भी अब थक सी गयी है
क्या गलत है जो थोडा ठहर कर मैं आराम करना चाहती हूँ
अपनी रूह में थोड़ी सी ताज़गी महसूस करना चाहती हूँ
तू मेरी मदमस्त हंसी को सुनना चाहता है
और मैं अपने आंसूओं को बहा  देना चाहती हूँ 
मेरे ज़ख्म अभी हरे हैं
और तेरे ये बंधन उन्हें कुरेद कुरेद कर भरने नहीं देते
मुझे तनहा छोड़ दे , गर तू मेरा सहारा नहीं बन सकता
मैं कुछ सुस्ता लूं तो चलूँ , फिर तेरे साथ
अब इन राहो की तपन झेली नहीं जाती मुझसे 
हर कदम  पर जब भी मुड़ के देखा तो अकेला ही 
पाया है मैंने खुद को
अगर अब थोडा खुदगर्ज़ मैं भी होना चाँहू तो  कहाँ गलत हूँ मैं
तू जो भी समझे इन राहों पर चली तो अकेली हूँ मैं
मेरे शिकवे तू ना समझ सके तो ना  समझ
कम से कम मुझे कायर कह कर ज़माने की मुखालत तो ना कर 

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