मेरे पथिक !
कहो, कैसे स्वागत करूँ तुम्हारा ?
भीगी पलके, मुस्काते नयन और थर्राए अधर ,
कहो, कैसे स्वागत करूँ तुम्हारा ?
भीगी पलके, मुस्काते नयन और थर्राए अधर ,
सभी कुछ तो असमर्थ हो गया है,
उस स्पन्दन की अभिव्यक्ति में।
कैसे कहूँ , तुम्हारा आना कैसा है ?
शायद कुछ ऐसा, जैसे किसी ठिठुरती सर्दीली रात में ,
आग का तापना
या तपती धूप में रेतीले मरुस्थल के बीच ,
घने बरगद की छाँव पा जाना ।
तुम्हारा मेरे जीवन के समर में आना,
कुछ ऐसा है,
जैसे किसी शांत दोपहर में
गाँव की अमराइयों में गूंजती बंसी की मधुर लहर हो
हाँ !, ऐसा है तुम्हारा आना
जैसे किसी अनजाने शहर में,
किसी आत्मीय से भेंट हो जाना
पर, मैं तुम्हे कैसे बताऊँ
कि क्यों मैं मूक आवक खड़ी रह गई हूँ
तुम्हे इस तरह जीवन पथ पर मिल कर
मेरी भावना काव्य-गद्य सभी से परे ,
कुछ हट कर, किसी अनजाने अनदेखे रूप में,
तुम्हे वर लेना चाहती है
पर उन प्रतीक्षाओं से भारी तल्ख़ निशाओं के उपरान्त
सुनहरे उजाले से भरी ये नई प्रात: मे मैं,
विस्मित रह गई हूँ
मेरे अंग्शिथिल और विचार शून्य से हैं
मेरी भावना,
अपने शिशु से बिछुड़ी मादा हिरनी समान शब्द खोज रही है
भंगिमाए खोज रही है
नए अलंकार तलाश रही है तुम्हारा अवलोकन करने को
अविश्वनीय सा ये सरल पथ निहार रही है,
अवरोध हीन भी हो सकता है क्या, ये पथ ?
ओ! मेरे पथिक,
मुझे उबार लो
और मेरे अंग प्रत्यंग में उपजी इस अनिश्चित सी पुलक को एक आधार दो
कह दो! ,
कह दो!. पथिक की तुम आ पहुंचे हो
इस सुनहली धूप से आ पहुंचे हो!
मेरे आँगन में ही नहीं, मेरे जीवन में भी।
उस स्पन्दन की अभिव्यक्ति में।
कैसे कहूँ , तुम्हारा आना कैसा है ?
शायद कुछ ऐसा, जैसे किसी ठिठुरती सर्दीली रात में ,
आग का तापना
या तपती धूप में रेतीले मरुस्थल के बीच ,
घने बरगद की छाँव पा जाना ।
तुम्हारा मेरे जीवन के समर में आना,
कुछ ऐसा है,
जैसे किसी शांत दोपहर में
गाँव की अमराइयों में गूंजती बंसी की मधुर लहर हो
हाँ !, ऐसा है तुम्हारा आना
जैसे किसी अनजाने शहर में,
किसी आत्मीय से भेंट हो जाना
पर, मैं तुम्हे कैसे बताऊँ
कि क्यों मैं मूक आवक खड़ी रह गई हूँ
तुम्हे इस तरह जीवन पथ पर मिल कर
मेरी भावना काव्य-गद्य सभी से परे ,
कुछ हट कर, किसी अनजाने अनदेखे रूप में,
तुम्हे वर लेना चाहती है
पर उन प्रतीक्षाओं से भारी तल्ख़ निशाओं के उपरान्त
सुनहरे उजाले से भरी ये नई प्रात: मे मैं,
विस्मित रह गई हूँ
मेरे अंग्शिथिल और विचार शून्य से हैं
मेरी भावना,
अपने शिशु से बिछुड़ी मादा हिरनी समान शब्द खोज रही है
भंगिमाए खोज रही है
नए अलंकार तलाश रही है तुम्हारा अवलोकन करने को
अविश्वनीय सा ये सरल पथ निहार रही है,
अवरोध हीन भी हो सकता है क्या, ये पथ ?
ओ! मेरे पथिक,
मुझे उबार लो
और मेरे अंग प्रत्यंग में उपजी इस अनिश्चित सी पुलक को एक आधार दो
कह दो! ,
कह दो!. पथिक की तुम आ पहुंचे हो
इस सुनहली धूप से आ पहुंचे हो!
मेरे आँगन में ही नहीं, मेरे जीवन में भी।
6 दिसम्बर 1992
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