शब्द कहाँ से लाऊँ जो इस आक्रोश को व्यक्त करे
स्वर कहाँ से लाऊँ जो नारी तेरी दुर्दशा को व्यक्त करे
शुद्रो से निम्न स्थिति जिसकी है
दलितों से बदतर गति जिसकी है
कोख में उसके सारी स्रष्टि है
है कौन वो ?
दरिद्र
मूक
शोषित
नर की बांदी
वह तू - स्त्री है
छल से बल से सम्मति से
पुरुष ने जिसको सदा ही भोगा
आह! तेरे तन के आकर्षण में
निहित मैंने नारी तेरा ही दुर्भाग देखा
मानव की श्रेणी से वंचित पाया तुझको
जड़ जीव सा मैंने तेरा उपभोग देखा
इस हाथ से उस हाथ मैंने तुझे बिकते देखा
घर की चार-दीवारी हो
या तन का बाज़ार
नारी मने तुझे सदा नर से नीचे देखा
सत्ताओं की नीव पर
या मंडप की ओट हो
मैंने, तुझे ,
सदा बलि सा चढ़ता देखा
स्वार्थ की वेदी पर मैंने तुझे
मानुष से इतर देवी बनते देखा
कितने विशेषणों में मानी तुझे जड़ा पाया
तुझे तेरे अस्तित्व से बस जुदा होते देखा
मेना , वामा , पुरन्ध्री स्त्रियः से
ग्ना भी मैंने तुझे होते देखा
राम,अर्जुन गाँधी हो या हो सर्व साधारण जन
सब में मैंने केवल भुक्त भाव देखा
नारी मैंने तुझे क्षण क्षण स्रष्टि की यज्ञवेदी पर
स्वाहा होते देखा
मनीषा
बहुत लोग राम और गाँधी के नाम पर हो सकता है बुरा माने पर इससे पहले वो कुछ कहे मैं बस इतना ही कहना चाहती हूँ मुझे लगता है राम ने सीता और गाँधी ने कस्तूरबा को औरत या एक स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं समझा। हाँ पत्नी का सम्मान तो दिया पर उनके अपने व्यक्तिगत विचारों का सम्मान नही किया जो आज भी शायद ही कोई पुरुष कर पाता है।
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