जब भी झांकती हूँ
अपनी ज़िंदगी के खाली पन्नों के बीच
तो उसमे जीवन जैसा कुछ नही मिलता
मिलते हैं तो लम्हों के टुकड़ों में बंटे
उम्र के कुछ चिन्ह
जिन्हें चांदी का वर्क लगा
बीड़ों की तरह
किसी बेशकीमती तश्तरी में
सजा दिया गया हो
और कभी मैं वर्क की मढ़ाई
देख पुलक जाती थी और
अपने पर इतरा जाती थी
पर अब वर्क की चमक
कुछ धुंधला सी गई है
अब वर्क उतरता जा रहा है
और मिटता जा रहा है मेरा भ्रम
बीड़ों से सूखते उस रस की तरह
जिसके सूख जाने पर उन के भीतर
रह जाती है
कोरी कड़वाहट
शायद मेरी ढलती उम्र की तरह
मनीषा
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