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Monday, December 24, 2012

जब भी झांकती हूँ


जब भी झांकती हूँ 
अपनी ज़िंदगी के खाली पन्नों  के बीच 
तो उसमे जीवन जैसा कुछ नही मिलता 
मिलते हैं तो लम्हों के टुकड़ों में बंटे 
उम्र के कुछ चिन्ह 
जिन्हें चांदी का वर्क लगा 
बीड़ों  की तरह 
किसी बेशकीमती तश्तरी में 
सजा  दिया गया  हो 
और कभी  मैं वर्क की मढ़ाई 
देख पुलक जाती थी और 
अपने पर इतरा जाती थी 
पर अब वर्क की  चमक 
कुछ धुंधला सी गई है 
अब वर्क उतरता जा रहा है 
और मिटता जा रहा है मेरा भ्रम 
बीड़ों  से सूखते उस रस की तरह 
जिसके सूख जाने पर उन के भीतर 
रह जाती है 
कोरी कड़वाहट 
शायद मेरी ढलती उम्र की तरह 
मनीषा 

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