मेरी छाती का क्रंदन
हा! ये रुदन
ये मेरे भीतर छिपा संताप
शब्द न तोल पाते जिसे
ये कैसा विलाप
विश्व हंसा करता विह्वल होता
मैं केवल सदा ही रोया करता
नही निष्पक्ष, नहीं निर्विकार
मेरे भीतर ये कैसा चीत्कार
पल पल घुटता जाता मन
मैं युग युग से संतप्त
फिरता बैरागी
लिए मन में एक चिर उदासी
कैसी सूली ये बाल मन
नित चढा करता
हा! ये कैसा अभिशाप
हा! ये कैसा विलाप
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