सब गैर ज़रूरी लगता है
मेरे लिए कोई अब कहाँ कुछ करता है
जो चाहिये खुद ही लाना पड़ता है
सब्जी का थैला लौटते में भारी लगता है
जन्मदिन हो या शादी की सालगिरह
अपना उपहार खुद ही ले आना पड़ता है
आईने देखने की फुर्सत नहीं मिलती
मेरे तिल पर कोई कविता लिखी नहीं मिलती
हाथ की मेहंदी अब छूट चुकी है
बसंती साड़ी का मौसम अब नहीं आता
सावन मेरा मन नहीं महकाता
जब जब पैरों मे थकन चढ़ती है
तेरी दी हुई पायल कहीं ख्याल में खनकती है
आँख तक आते तो हैं आंसू पर छलकते नही हैं
काम करते मेरे हाथ थकते नहीं है
फिर भी खाली पल आ बैठते हैं
दुनियावी सवाल अब चुभते नहीं है
तू वैरागी कवि बन भटकता है
मेरे पाँव से रिश्तों के भंवर उतरते नहीं है
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