माँ तेरी वेदना से निकली अजन्मी बच्ची हूँ मैं
जीना तो मैंने भी चाहा था पर मूक थी
क्योंकि विशाता ने गढ़ी नही थी तब तक मेरी जुबां
नही जानती थी जिनके मुँह में रख भी देता है वो जुबां
उस जन्मी बेटी की चीखे सुन सके ऐसे कर्ण वो नही गढ़ता
आज धन्य मानती हूँ की मैं जन्मी ही नहीं
जब मुझे ऐसे ही मिट मिट कर जीना था
लोहे की सांखल से विक्षिप्त हो मरना था
जीती तो भी क्या करती
माँ तेरे समाज की रीतियों की बलि चढ़ती
शायद दो जून पूरे खाने को तरस जाती
या दहेज की वेदी पर जल जाती
जब तक जीती तब तक
नोची खासोटी जाती
आसपास से घूरती गंदी नज़रों से कब तक बच पाती
मैं अजन्मी रही तो शायद अच्छा ही है
तू माँ अकेली मुझे कैसे पाल पाती
कब तक मुझे बचाती
जब तू भी तो विवश है
मिट मिट कर जीने को
फिर आऊँ माँ तब भी मुझे गिरा देना
तेरी इस दुनिया से रूठ गई हूँ मैं
जहाँ मुझे मेरे लिए कोई देहरी नही मिलती
तुझसे प्यार तो बहुत करती हूँ मै
पर रोज़ रोज़ मरने से बहुत डरती हूँ मैं
मनीषा
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