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Sunday, December 10, 2023

भुलावे

 उन्हें रोटी में उलझाए रखना 

मुंह खोलें तो 

जाति पांती में भुलाए रखना

वाद विवाद करता है प्रतिवादी

उसे हास्य पात्र बनाए रखना

ना कुछ कर सको तो 

शहरों के नाम बदल देना 

बहुत कोई बढ़ चढ़ बोले 

तो उस पर कई धाराएं लगा देना 

याद रहे ये भोली जनता है 

इसे भविष्य के वादों

और इतिहास की गलतियों में 

बहलाए रखना।।


मनीषा वर्मा

#गुफ़्तगू

Tuesday, November 21, 2023

तुम बिन

 थोड़ा सा पागल हो जाना 

स्वीकार मुझे 

तुम बिन जीना कितना दुश्वार मुझे।।

 

बिना पैर के चलती हूं

बिना हंसी के हंसती हूं

तुम बिन कहां कोई व्यवहार मुझे ।।


ना आसमां कोई सिर पर मेरे 

ना पैरों तले ज़मीन मिले 

तुम बिन त्रिशंकु सी हर ठौर मुझे ।।


मनीषा वर्मा 

#गुफ़्तगू

उठो ना मां

 अजीब ही है

जैसे गले में एक शब्द घुट कर रह गया 

उस दिन...

मां

आज भी उतनी ही वेदना से 

भीतर घुड़मता है वही बार बार ।।

यहीं आ कर चेतना शून्य हो जाती है

मन तर्क कुतर्क से परे 

बस चीखना चाहता है... मां उठो।।


मन है कि बस 

देखना चाहता है वही  स्नेहिल मुस्कान 

महसूस करना चाहता है वही स्पर्श

जो पूरी प्रकृति में कहीं नहीं है

और अतीत की कोई स्मृति 

जैसे ही मन गुदगुदाती है

नजर घूमती है बगल में कि अरे मां को बताएं

लेकिन वो जगह तो खाली है

वहां कोई नहीं है सुनने को

और फिर मन चीख उठता है

मां... उठो।।


छुट्टियां आती हैं त्योहार आते हैं 

जिनके पास मां हैं वो लौटते हैं 

उनके पास घर हैं लौटने को 

हमारे पास भी है एक मकान 

एक घर हमारी संतानों के लिए 

पर हमारा घर ?

दिए की लड़ियां लगाते हुए 

मां की सब सावधानियां याद आती हैं

दूर से जगमग देख कर मन सोचता है

पूंछू ठीक लग रही है ना

लेकिन किससे

और फिर मन चीख उठता है 

मां ....सुनो ना

कहां गईं?

मां...उठो 

तुम्हारी संतानें अभी है 

तुम कैसे जा सकती हो?

किसने तुम्हें छूट दे दी कि

चल दो इस अंतिम सफर पर

ना नहीं

मां....उठो, 

उठो ना मां ।।


मनीषा वर्मा 

#गुफ्तगू




Saturday, November 18, 2023

सुलगते शहर

 ये उठता धुंआ ये सुलगती लाशें

ये बच्चों की चीखें 

ये स्त्रियों का रूदन

ये खंडहर शहरों के 

ये मलबों में दबे मासूम हाथ

ये अध कटे बदन

ये सड़कों पर चीथड़े मांस के 

ये किस ने बारूद से उड़ा दी हैं

मानवता की धज्जियां?


मनीषा वर्मा 

#गुफ़्तगू

Tuesday, November 7, 2023

अपने अपने द्वीप

 मैं एक द्वीप पर हूं

एक दायरे के भीतर

सुरक्षित

 महफूज़

मुझ तक नहीं आतीं 

कोई चीख पुकार।।


आस पास बहुत धुंध है

व्यवहार की परंपरा की

इसलिए मुझ तक नहीं

आते लहूलुहान बच्चों की 

अर्धनग्न औरतों चेहरे ।।


मेरे आस पास शोर बहुत है

आरतियां हैं गुनगुनाते नग्मे हैं

इसलिए मुझ तक नहीं आता 

रूदन और गिड़गिड़ाना

आरतों और बच्चों का ।।


मेरे आस पास  है 

रसोई की गंध है पकवानों की खुशबू

इसलिए मुझ तक नहीं आती

जलते अंगो और सड़ती लाशों

की दुर्गंध।।


मैं अपने द्वीप पर सुरक्षित हूं 

महफूज हूं।।


मेरे पास बहुत कुछ नहीं हैं 

जो मुझे विचलित करता है।।

और मैं आवाज़ भी उठाती हूं 

अपने लिए मांगती हूं

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

आस पास घूमने की आजादी

लेकिन  मेरी इस चुप ने 

मुझे दिया भी बहुत

एक छत, एक घर 

वक्त पर खाना पूरा परिवार 

थोड़ा सुख थोड़ा प्यार।।

और मुझे मिला है 

घर संसार

एक अदद बहुत बड़ा सा कलर टीवी है

जिस पर आती हैं खबरें

युद्ध की दंगाइयों की 

और 

मुझे स्वतंत्रता है 

कि डर से उसे बंद कर दूं।

कस के आंखे भींच लूं

मुंह में कपड़ा ठूंस लूं

और कानों में रूई भर लूं

क्योंकि मैं जानती हूं

मैं अपने द्वीप पर सुरक्षित हूं 

महफूज़ हूं।।


शायद यही होता है

सब अपने अपने द्वीप पर 

बैठें हैं 

सुरक्षित महफूज़।।


थोड़े थोड़े गुलाम लेकिन 

महफूज़

अपने अपने द्वीप पर।।


मनीषा वर्मा 


#गुफ़्तगू

Monday, November 6, 2023

मैं भूखा हूं

 मुझसे अधिकार और अन्याय की बातें मत करना 

मैं भूखा हूं

बात मुझसे सिर्फ रोटी की करना ।।


ना शर्म नहीं ग्लानि नहीं

कोई लाज लज्जा नहीं

मैं भूखा हूं 

बात मुझसे सिर्फ रोटी की करना ।।


क्या बाबू तुम क्या जानो

खाली पेट की खाली बातें

भूख से तड़प वो

आंत दाब नशीली नींद सोना ।।


घूंट भर पानी गट गट पीना

रोज़ जीना रोज़ सौ बार मरना 

बाबू मैं भूखा हूं 

मुझे चाहे सौ गाली देना 

बस बात मुझसे सिर्फ रोटी की करना ।।


और बात ही क्यूं

अगर हो सामर्थ तुम्हारी तो 

पहिले एक रोटी देना

फिर पीछे चाहे जितने आश्वासन देना  ।।


मनीषा वर्मा 


#गुफ़्तगू

Sunday, November 5, 2023

वो मुझको मेरी नजर से कब देखता है

 वो मुझको मेरी नजर से कब देखता है

वो जब भी देखता है मुझमें आईना देखता है।।


यूं तो मालूम है उसको मेरी मजबूरियां

फिर भी मुझसे मिलने के ठिकाने देखता है।।


क्यों मिलता है वो ऐसे खुलकर मुझसे

ऐसे तो हर शख्स अपनी कैफियत देखता है ।।


कह कर भी वो कुछ कहता नही है 

वो जमाने की नजर देखता है ।।


यूं तो है ये शहर उसके लिए अजनबी

वो मुझे क्यों फिर अपनों में  देखता है।।


लिख कर भेजा है एक खत मेरे नाम

मुझसे बतियाने के वो बहाने देखता है।।


मनीषा वर्मा 

#गुफ़्तगू


Tuesday, October 24, 2023

तन्हा तन्हा चलते रहे

 तन्हा तन्हा चलते रहे 

एक सफर से हम भी गुजरते रहे।

सुबह बुनते रहे कुछ रेशमी धागे

रात  भर गिरह खोलते रहे।।


ना समझा इश्क ने कभी हमें

ना हम समझ सके कभी इश्क को।

इस तरफ़ लिखते रहे हम खामोशियां

उस तरफ वो चुप्पियां सुनते रहे।।


हाथ थाम कर इस तरह बेबस किया

उन्होंने, हम ना किसी काबिल रहे।

इस तरह गुजरा उम्र का सफर

हम राह तकते रहे और वो आते ही रहे।।


मनीषा वर्मा


#गुफ़्तगू

Sunday, September 17, 2023

अंतिम विदाई अंतिम प्रणाम

आज फिर मैं जो सफर पर चला

किसी ने लौट कर आने को ना कहा

ना माथा चूमा ना दोनो हाथ उठा आशीष भरा

किसी ने आंचल से नाम आंखे पोछते विदा ना किया

आज फिर जो मैं सफर पर चला।।


ना हाथ में डब्बा था नमकीन भरा 

ना घी चुपड़ी रोटी और आचार 

ना थी घर की वो पुरानी नेमते

थोड़ी सी रोली चावल की गोदी

और झूठमूठ के वादे और 

वो सच्ची कसमें और सख़्त हिदायते

आज जो फिर मैं सफर पर चला।।


ना लौट कर आने को कहने वाले पिता थे 

ना ठीक से रहना कहती अम्मा 

ना फिर आने को कहती भाभी  

ना पीठ थपथपाते  भईया 

था बस एक सूना द्वार

जर्जर होती जा रही दीवार से झड़ता पलास्तर

और जंग खाता चुप सा जंगला

आज जो फिर मैं सफर पर चला।।


मनीषा वर्मा


#गुफ़्तगू

Saturday, September 16, 2023

द्वार बंद कर आई हूं

द्वार बंद कर आई हूं

सब चाबियां समेट लाई हूं

लेकिन ताले कहां रोक सकेंगे

बदलते समय के प्रवाह को

फिर भी एक समंदर अपने भीतर

समेट लाई हूं।।

अब द्वार बंद कर आई हूं।।


सांकल चुप थी दीवारें उदास 

हां एक पंखा था पूरी शिद्दत के साथ घूमता

एक  अधूरे दिलासे की तरह रोकता

उसे भी अलविदा कह आई हूं।

अब द्वार बंद कर आई हूं।।


आकाश बहुत नीला था उस छत पर

चांद सदा पूरा था उस आंगन  पर 

शाम उतरती थी सुनहरी भोर होती थी रूपहली 

एक पैगम्बर था आगे पीछे  एक ईश्वर था

अज़ान और घंटियों से भरी भोर छोड़ आई हूं

अब द्वार बंद कर आई हूं।।


तन पर पगधूलि लपेट आई हूं

छत पर थोड़ा भीग आई हूं

एक आखिरी बार छज्जे से 

उतरता सूरज देख आई हूं

चिर परिचित वो शाम बटोर लाई हूं।

अब द्वार बंद कर आई हूं।।


फर्श पर धूल के बीच थे वो गढ्ढे 

जो हमने तुमने मासूम उंगलियों से कभी भरे थे

एक चौखट थी कच्ची सी, मां के हाथ की बनी

उस पर इतराता बंदनवार छोड़ आई हूं

अब द्वार बंद कर आई हूं।।


एक गठरी बातें उन दीवारों की समेट लाई हूं

थोड़ी खुशी थोड़ी राहतें संग ले आई हूं

पूजा घर से भगवान उठा लाई हूं 

हमारी उस देहरी पर शीश नवा आई हूं

तुम्हारे लिए मां के पुराने खत संभाल लाई हूं

अब द्वार बंद कर आई हूं।


मनीषा वर्मा 

#गुफ़्तगू 


Wednesday, September 13, 2023

एक कमी सी बनी रहती है

 ख्यालों में एक नदी सी बहती है

चांदनी भी रात भर उदास रहती है

भीतर बाहर एक सर्द नमी सी बनी रहती है

वो आता है ले कर लौट जाने की तारीख

घर में एक कमी सी बनी रहती है।।


मुस्कुराहटें उदास सी खिली रहती हैं

बना तो लिया है आशियां अपना

आने वालों की कमी सी रहती है 

शायद ना दे सकी उसे 

रुकने की कोई वजह

जो उसे जाने की पड़ी रहती है।।


बिछी चादर पर एक सिलवट सी पड़ी रहती है

बिस्तर के किनारे एक किताब अधूरी सी रखी रहती है

भोर आती है चुपके से आंगन में फैली धूप के साथ

रात भर उसके  आने की आहट लगी रहती है।।


मनीषा वर्मा

#गुफ़्तगू

Tuesday, September 12, 2023

कबाड़

सुनो तुम जिसे कबाड़ कह रहे हो ना 

वो मेरा बीता कल है गुज़रा समय है मेरा

ये जो महक रहा है ना बंद बक्सा सा 

उसमे सुगंध है मेरे बचपन की

कस के ताले जड़ के बंद किया था 

मां के कहने पर ।

उसने संभाल कर रखे थे इसमें,

कुछ काढ़े हुए गिलाफ तकिए और चादर ।

हां! एक कांसे की कटोरी और गिलास भी था, 

मेरी नानी ने दिया था उसे ब्याह में।

हां!  ये पुरानी अलमारी जो अब जर्जर सी दिखती है जो

कभी दहेज में लाईं थी  मां,नई चमकती।

हर साल दिवाली पर हम इसे पेंट कर के नई सी कर देते,

और मां फिर  फिर किस्सा दोहराती थी;

चौथी मंजिल से गिरी थी एक बार घर बदलते हुए 

देखो कुछ ना हुआ बस पांव टेढ़ा हुआ जरा 

कितना मजबूत लोहा है।

हां ! हां !जानती हूं पुराना किस्सा है।

कई बार कहा सुना है।

अब इस जंग खाती अलमारी से मोह क्या ?

मोह तो किस्से से है याद से है।

उस काली  चमड़े की अटैची पर जम के हंसते,

जब मां कहती हरी है ।

चमड़ा पुराना हो कर काला हो गया था,

फिर भी हम खिजाते उसे, क्या मां! रंग नहीं पहचानती?

और जो ये मेज है, ना इसकी इसी छोटी दराज में,

पीछे, बिल्कुल पीछे, मै तुम्हारे खत छिपा दिया करती थी,

चोरी चोरी निकाल कर पढ़ने के लिए।

इसी तख्त पर तो बेटे की मालिश की थी दादी ने,

और सिले थे मां और बुआ ने इस पुरानी मशीन पर झबले।

ये जो बिना पाय और दरवाजे वाली अलमारी है ना

दादी की है, 

उसकी दराज़ो ने पीढ़ियों की विरासते संभाली हैं।

कभी रसोई की शान बनी तो कभी पापा कि किताबें संभाली हैं

पीढ़ी दर पीढ़ी चलती अब बूढ़ी हो चली है

शायद अब संभाल मांगती है, एक बुजुर्ग की तरह उसे

भी एक कोने में रहने दो।

ये जो पुरानी किताब है ना हां!हां! गणित की

जानती हूं मेरा विषय नहीं है

लेकिन इसके कुछ पन्नों पर मां के हाथ से लिखे कुछ फुटकर नोट्स हैं धुंधले से , पढ़ने की कोशिश करती हूं

समझ तो नहीं आते लेकिन याद आती है किशोरी सी मां

इन पन्नों को पढ़ती हुई

और ये जो बिना कवर की डायरी है ना इसमें दादी ने उतारी थी पसंदो की रेसिपी

कहा था हम लिख जाएंगे सब कभी जो तुम्हें बनाना हो।

हां जानती हूं कोई नहीं खाता अब पसंदे पर 

इसमें दिखती हैं वो बालकनी में बैठी 

अपने झुर्रीदार कांपते हाथों से लिखती जाती थी पूरी दोपहरी

और ये पापा की डायरी

इसमें में उतरे हुएं है उनके पसंदीदा शेर 

और दिखते हैं वो किशोर से उमंगों से भरे 

होश संभालते 

इसी से जाना था उन्हें जितना जाना 

पढ़ कर लगता था अच्छा वो भी ऐसे थे

कितने रोमांच और रोमांस से भरे 

इसी के आखिरी पन्ने पर एक शाम उतरी है 

जब अपनी गुल्लक से उन्हें दिए हुए पैसों का हिसाब

मैने लिखा था और बकायदा दस्तखत करवाए थे उनसे कि पूरे दो रुपए उन्हें देने हैं, मेरे।

सुनो कबाड़ नहीं है, अब ढलती उम्र में याद आता बचपन है ये ।

पहले प्यार का अहसास है, मां दादी का आशीर्वाद है ।

सुनो!, इसे कबाड़ मत कहना, मेरा बीता कल है ये।

मेरी निजी धरोहर है ये। मेरा इतिहास है ये।


मनीषा वर्मा 

#गुफ़्तगू

Friday, September 8, 2023

कुछ उनको खबर है कुछ हमें भी

 एक बात अनकही सी कहे जा रहे है

कुछ उनको खबर है कुछ हमें भी ।।


लम्हा लम्हा साथ बैठे शाम गुजरती जा रही है

कुछ उनको खबर है कुछ हमें भी ।।


काम निकाल कर मिलने के जो बहाने बना रहे हैं

कुछ उनको खबर है कुछ हमें भी ।।


नजरें चुरा रहे हैं वो जिस बेचैनी को छिपा रहे हैं 

कुछ उनको खबर है कुछ हमें भी ।।


चलने को दोनो कहते हैं फिर भी देर किए जा रहे है

कुछ उनको खबर है कुछ हमें भी ।।


ये जो वक्त बेवक्त की गुफ्तगू  में जो कर रहे इशारे हैं 

कुछ उनको खबर है कुछ हमें भी ।।


मनीषा वर्मा 

#गुफ़्तगू

Wednesday, September 6, 2023

नाम में क्या रक्खा है?

 नाम में क्या रक्खा है?

कुछ रख दो।


नहीं नहीं ऐसे कैसे

नाम है तो पहचान है ना

बिना नाम पहचान कैसे 

कुछ भी कह लोगे क्या?


नाम से मान बढ़ता है

कितना अजीब होगा ना 

नाम अनुचित हो पुकार का हो 

टीटू, छोटू कुछ

इसलिए कहती हूं बदल डालो।


अच्छा सा सुंदर सा

सही नाम ना हो तो 

भाव ना मिलेगा 

कभी सुना है किसी धनाढ्य का नाम 

छोटू बंटी जैसा कुछ?

लेकिन हम तो...


उहूं नाम बदलेंगे तो पहचान बदलेगी

वो जो गली के आगे खुली नाली है ना 

किसी का ध्यान नहीं जाएगा उस पर

लगेगा किसी बड़ी कोठी से हो।

अरे! तो क्या हुआ खाने को कमाने को ना है

नाम रखो बड़ा सा जोरदार सा।

कोई पूछेगा ही नहीं,

बस मान सम्मान के लिए 

इतना ही तो चाहिए।


कहो तो रेडियो टी वी में चलवा दें,

नाम के आगे सुश्री सुकुमार लगवा दें

आगे डागदर उकील कुछ लिखवा दें।

कोई नही पूछेगा,कितनी उधारी चढ़ गई

उम्र के सत्तर पिचहतर सालों में?

बस एक बड़ी सी तख्ती लटका देंगे,

थोड़ा लाइट वाइट लगवा देंगे ।


ना ना अरे!घर के आगे सड़कों पर ठेला ना लगाना ।

वो सुखिया के घर के आगे बहुत गंदगी है,

गरीब की बस्ती है,

कुछ लीपा पोती कर दो,

चलो एक ऊंची दीवार खड़ी कर दो,

उस पर खूब चित्रकारी कर दो।

बस काम हो जाएगा।


नाम में बस वजन होना चाहिए 

क्या नही हो सकता।

इसलिए नाम सोच समझ कर बदल डालो।

बस मान सम्मान के लिए 

इतना ही तो चाहिए।


आखिर घर में भी तो चद्दर गिलाफ पर्दे बदलते हो ना

जो मन आए सो बदल दो 

लगे तो तुम भी थोड़े विकसित हो।


मनीषा वर्मा 


#गुफ़्तगू

Saturday, August 26, 2023

काश! मैं एक भेड़ होती

 काश! मैं एक भेड़ होती

लकीर की फकीर

चलती चुपचाप,

बिना प्रश्न, सिर झुकाए

एक दायरे में रहती

लक्ष्मण रेखा के भीतर

जीती एक आम सी जिंदगी

खटती रहती चूल्हे के आगे 

और चलती नटनी सी

 रिश्तों की रस्सी पर

चारदीवारी की धूरी पर घूमती

चिंता होती केवल अब क्या पकाना है

ओह चादर फिर बदलाना है

खिड़की पर की धूल झाड़नी है

सवेरे सबको दफ्तर स्कूल जाना है

पड़ोसन की कटोरी भर चीनी लौटाना है

एक सरल सा जीवन 

अपने में सिमटा हुआ मैं जीती

काश मैं भेड़ होती

तुम्हारे मन की होती तब

तुमको मैं कितनी पसंद होती।।


मनीषा वर्मा 


#गुफ़्तगू

Friday, August 11, 2023

तुम्हारा साथ

 किसी ने रख दिया हो दुर्दिन में 

जैसे कंधे पर हाथ

कुछ ऐसा ही है तुम्हारा साथ।।

 परिभाषाओं में जो नहीं बंधता

मर्यादा के परे भी जो नहीं जाता

कुछ ऐसा ही है तुम्हारा साथ।

मन करता है तुम्हारी हथेली पर 

अपनी हथेली रख दूं

और खेलूं तुम्हारी अंगुलियों से 

और कहूं तुम बांट लो अपना दर्द।।

तुम्हारे सिर को अपनी गोद में रख कर 

सहलाते हुए तुम्हारे बाल 

तुम्हारी सुनूं और कुछ अपनी कहूं

दिन भर की थकन के बाद 

सिर टिकाने को जो मिलता है

उस कांधे सा है तुम्हारा और मेरा साथ। 

शब्दों की परिधि से अलग

कुछ अपना सा ।।


मनीषा वर्मा 

#गुफ़्तगू

Wednesday, August 9, 2023

तुम्हे क्या समझूँ ?

 तुम्हे क्या समझूँ ?

और कैसे ?

अपने से हो

पर पराए लगते हो।

कभी रख देते हो,

मेरी आँखों में आकाश।

कभी कदमों तले बिछी

धरती भी छीन लेते हो।

तुम्हें ओढ़ लेती हूँ

हर रात ख़्वाब बुनने से पहले,

तुम हो कि मेरी नींद भी छीन लेते हो।

रोज़ दिलासों से सी लेती

हूँ अपना उधड़ा हुआ रिश्ता,

तुम हो कि फिर

नए सिरे से चीर देते हो।


मनीषा वर्मा 


#गुफ़्तगू

Tuesday, August 8, 2023

लेखनी मेरी

 अक्सर पूछ लेते हैं लोग

तुम लिखती हो तो इसे छपवाती क्यों नहीं?

उन्हें क्या बोलूं कागज़ पर स्याही से नहीं

छापनी मुझे अपनी अभिव्यक्ति।

मुझे छापनी है मानस पर 

मानस की अपनी भाषा में

जिनमे बू तो हो मेरी अभिव्यक्ति की

लेकिन प्राण मानस के हों

कभी तो लिखूंगी एक सार्थक रचना 

जो किसी मन में उतर कर बस जाएगी।

जाने कब लिखूंगी वो एक कविता, तब तक 

शब्दों को ढलने दो,

जैसे ढलते हैं दिन और रात ।


मनीषा वर्मा 


#गुफ़्तगू

Monday, August 7, 2023

मुझे उस दर जाना भी नहीं है

 मुझे उस दर जाना भी नहीं है

पर मेरा ठिकाना भी वही है।

कर तो लूं किस्मत पर भरोसा

पर ये रास्ता पहचाना भी नहीं है।।

मुझे उस दर जाना भी नहीं है।

पर मेरा ठिकाना भी वहीं है।।


खंडहर है तो तब भी वो भी मेरा है

बीते दिनों का अफसाना भी वहीं है

कर तो दिया उसे नजर किसी और की

पर मेरा आशियाना भी वही है।।

मुझे उस दर जाना भी नहीं है

पर मेरा ठिकाना भी वहीं है।


लिख कर कर देती हूं जिस्म से दूर 

दर्द का कोई पैमाना तो नहीं है।।

कर तो लिया है पत्थर दिल 

पर ये फैसला मर्ज़ी मुताबिक भी नहीं है।।

मुझे उस दर जाना भी नहीं है

पर मेरा ठिकाना भी वहीं है।।


मनीषा वर्मा 

#गुफ़्तगू

Friday, August 4, 2023

इस रात को खबर क्या

 इस रात को खबर क्या दिन की बेचैनियों की

लम्हा लम्हा कर के गुजरती जाती है।।


रक्खी हैं पेशानी पर संभाल के उम्र की कुछ लकीरें

जिंदगी बस यूं तितर बितर सी कटती जाती है।।


उस से मिलने और बिछड़ने का सुरूर कुछ ऐसा है

दोपहर ख़ामख़ाह शाम के इंतजार में निकल जाती है।।


मनीषा वर्मा 

#गुफ़्तगू

Thursday, July 20, 2023

आह! कब तक!

 शर्म शायद मर गई

उन्हें नहीं किया नंगा

खुद हुए तुम नंगे

वे तो ढक लेंगी तन को

मन के घाव भी सह लेंगी

पर तुम? तुम कैसे देखोगे खुद को 

अपने भीतर के उस अट्टहास

लगाते दुशासन को

जो तुम में समा गया है

और डराता है तुम्हारे आस पास 

रहती मां बहन और बेटियों को

जानती हूं कृष्ण अब नहीं आते 

ना कोई जागता है भीम किसी के भीतर 

इसलिए तुम्हें तो जीना ही होगा 

अपने इस पिशाच रूप में 

तुमने लिया है ना जन्म इस राम की धरती पर 

तो यही दंड है तुम्हारा

तुम्हारे आस पास रहने वाली 

कोई स्त्री कभी महफूज़ नहीं रहेगी

सदियों तक विलाप गूंजेगा इस ब्रह्मवृत भूमि पर 

और द्रौपदी की तरह हर स्त्री ढोएगी

इल्जाम अपने हास्य का , तंज सिर उठाने का 

और संकोच जन्म का।


मनीषा वर्मा 

#गुफ़्तगू

Wednesday, July 19, 2023

उम्मीद के चिराग

 उम्मीद के चिराग भी अंधेरे भर देते हैं

ये तेरे ख़्वाब, कभी नींदें भर देते हैं।।


ज़िक्र करते हैं तेरा बहुत बेरूखी से

रोज़ बहाने से तेरी खबर लेते हैं ।।


मनीषा वर्मा 

#गुफ़्तगू

Tuesday, July 18, 2023

पुरुष की कविता

 पुरुष की कविता भिन्न होती है 

कविता के पुरुष भी भिन्न होते हैं

पुरुष प्रेमी पिता भाई सहोदर सब होते हैं कविता में 

पर कोमल करुण दारुण नही होते 


पुरुष की कविता  है

शांत धीर गंभीर कविता

दोस्ती यारी सड़कों की आवारगी की कविता

कविता में भी पुरुष कमजोर  नहीं हैं

पिता अश्रु छिपा जाते हैं, प्रेमी वियोग से पागल तो हो जाते हैं

परंतु रोते नहीं हैं

ना कोमल हैं,न उलझे  से 

ना विलाप करते बस खामोश और चुप्प से हैं पुरुष कविता में भी

पुरुष की कविता बस वीर और बलिदानी सी खड़ी है 

उनकी तरह 

पुरुष की कविता भिन्न होती है 

कविता के पुरुष भी भिन्न होते हैं।।


मनीषा वर्मा 


#गुफ़्तगू

Tuesday, July 4, 2023

इस शहर के आसमां पर

 इस शहर के आसमां पर हैरत से तुमको देखता चांद

एक अकेला वो भी है सितारों में 

एक अकेले तुम भी हो रोशनी के समंदर में 

कभी पूरा कभी अधूरा वो भी है

आधे आधे पर पूरे से कुछ तुम भी हो

नीले काले आसमां पर नितांत अकेला तुम सा वो चांद

हैरत से तुमको देखता चांद ।।


मनीषा वर्मा 

#गुफ़्तगू



Friday, June 30, 2023

मैं उलझनों सुलझनों में उलझी थी

 मैं उलझनों सुलझनों में उलझी थी

और जिंदगी बीत रही थी।।

कल पर कुहासा सा है

और कल अनजाना सा है ।।

पीछे आगे देखा जब नज़र उठा के

वक्त पाया बहुत थोड़ा सा है।

हाथों पर ना यादों का पुलिंदा है

ना उम्मीदों का बोझ कांधों पर ।।

सामने बस एक खालीपन सा है

जिसमे रंग भरती हूं और मिटाती हूं।

ये दिन भी और दिनों सा है

और मैं फिर उलझनों में उलझी रीत रही हूं धीरे धीरे ।।


मनीषा वर्मा

#गुफ़्तगू

Wednesday, June 28, 2023

तुम जब जब सच बोलोगे

 तुम जब जब सच बोलोगे 

तब तब दागे जाओगे एक अनाम गोली से।।

तुम्हारा सच उन्मुक्त है विशाल है

उन्हें पसंद हैं झुके शीश और जुड़े हाथ।।

ये क्या तुम ऊपर बैठना चाहते हो? बराबरी में?

ना ऐसा मत करना समानता जब तक अखबारी है

मंजूर है, प्रशंसनीय है 

जब जब निचली ज़मीन तक घर द्वार तक

तब तब निंदनीय हो जाएगी

इसलिए इसे कागज़ी उद्घोषणाओं तक रहने दो।।

याद रहे, सच बस उच्छवासों में ही बोलना है

धीरे से फुसफुसा कर।।

कहीं तुम निकल मत पड़ना झंडे ले कर,

चढ़ मत जाना मीनारों पर,

और चिल्ला चिल्ला कर दोहराना तो बिलकुल मत।।

तुमको क्या प्यारी है काल कोठरी और जल्लादों की मार?

ना! तुम देखो चुप रहो, चाहे तो मुंह सिलवा लो

जीने के लिए शर्त है ये हाकिमों की

तुम जब जब सच बोलोगे 

तब तब दागे जाओगे एक अनाम गोली से।।


मनीषा वर्मा 

#गुफ़्तगू

Monday, April 3, 2023

संगिनी

 बहुत इच्छा होती है वो

दो पल पास बैठे हाथ पकड़े

थोड़ा चलो साथ सैर ही कर आएं

थोड़ा गुनगुनाएं

नौकरी में था अब तक

कहां फुरसत थी

फिर बच्चे और दुनियादारी

वक्त ही कहां मिला

रिटायर हो गया तो वक्त ही वक्त

अब सोचता हूं वो पास बैठे 

हम कुछ बात करें

उसकी बातें शायद चुक चुकी हैं

वो व्यस्त है सुबह का नाश्ता दिन का खाना 

महरी से लगाई बुझाई

इधर साफ उधर पोछ

ना उसे वक्त नहीं मिलता

कितने तो आने जाने वाली हैं

महरी सब्जी वाली कूड़ा ले जाने वाला

सामने गली बुहारने वाला 

दोपहर में आने वाली वो पड़ोसन

कीर्तन मंडली

सबको समय देती है 

मेरे समय हाथ झटक कर कहती है

'जाने दो, बहुत काम है

तुम्हारा क्या फुर्सत ही फुर्सत'

कहीं ले जाना चाहता हूं उसे 

कितना कहती थी चलो ना 

इस बार गर्मी की छुट्टियों में नैनीताल

अब पूछता हूं तो बोलती नहीं है

बस देखती है मुझे जैसे मुझसे परिचय ना हो।

जैसे शायद सारी इच्छाएं उसकी 

मर चुकी हों

अब उसकी  दिनचर्या में 

मैं अपना कोना खोजता रहता हूं

उसके वक्त में अपने हिस्से का समय ढूंढता

 इस पार्क की बेंच से 

नाता जोड़ रहा हूं।


#गुफ़्तगू 


मनीषा वर्मा

Saturday, March 18, 2023

तुम्हारा जाना

 जो तुम गए होली के रंग सारे कहीं उड़ गए

एक दिन में कभी इतनी तो उदासी तो ना थी 

बस तुम्हारे वो ठहाके कहां गुम गए?


दिन उगता है रात ढलती है 

पल पल चलता है ये जहां दुनिया रुकती तो नहीं

ये मेरे ज़हन के सारे सितारे क्यों बुझ गए ?


मनीषा वर्मा


#गुफ़्तगू

Monday, March 6, 2023

तुम लौटो तो सही

 तुम लौटो तो लौटे

बसंत का मौसम

मान मनुहार का मौसम

लौटें रौनकें, रतजगे और 

बज उठे फिर उदास पड़ा सरोद

तुम से कितना कुछ कहना है

तुम से कितना कुछ सुनना है

तुम लौटो तो लौटे 

पहचानें , उधड़े से कुछ रिश्ते

कुछ हक अदा करें हम तुम

कुछ लड़ें और कुछ झगड़े भी

पुराने नाम दोहराए थोड़ा प्यार जताएं

ये जो नई नई कोपलें आई है

पीढियों के वृक्ष पर 

उनसे कुछ परिचय हो अपनापा हो

तुम लौटो तो सही

अपने घर अपने देस

एक पल को भी।


मनीषा वर्मा 


#गुफ्तगू

Monday, January 30, 2023

 बापू तुम कहते और हम सुनते यदि

तुम से सीखते हिम्मत और दृढ़ विश्वास

सच के लिए लड़ने का अदम्य साहस 

तुम से शायद हम बहस भी करते 

और समझते तुम्हारे नियम और नीतियां।

कभी शायद हम कहते तुम गलत हो

और तुम अपनी सरल सीधी बातों से

समझा देते अपनी  हर बात

बापू तुम कहते और हम सुनते यदि।।




लाल धब्बे

 हिंसा और अहिंसा एक ही क्षण में 

एक दूसरे से ऐसे बंध गए,

ज़िक्र एक का तो बात दूसरे की भी उठे।

जैसे रात और दिन 

जिसने रात की स्याही देखी हो

उसे दिन के उजाले आंखों में चुभते हैं

और आंखे मूंद कर वो फिर एक बार 

अंधेरों में अपने खो जाता है।

उन अंधेरों में सुकून है

अंधेरे महफूज़ हैं

दिन में सच दिखता है और 

सफेद चादर पर पड़े लाल धब्बों का 

सच अब कौन देखना चाहता भी है?


मनीषा वर्मा 


#गुफ़्तगू