सुनो तुम जिसे कबाड़ कह रहे हो ना
वो मेरा बीता कल है गुज़रा समय है मेरा
ये जो महक रहा है ना बंद बक्सा सा
उसमे सुगंध है मेरे बचपन की
कस के ताले जड़ के बंद किया था
मां के कहने पर ।
उसने संभाल कर रखे थे इसमें,
कुछ काढ़े हुए गिलाफ तकिए और चादर ।
हां! एक कांसे की कटोरी और गिलास भी था,
मेरी नानी ने दिया था उसे ब्याह में।
हां! ये पुरानी अलमारी जो अब जर्जर सी दिखती है जो
कभी दहेज में लाईं थी मां,नई चमकती।
हर साल दिवाली पर हम इसे पेंट कर के नई सी कर देते,
और मां फिर फिर किस्सा दोहराती थी;
चौथी मंजिल से गिरी थी एक बार घर बदलते हुए
देखो कुछ ना हुआ बस पांव टेढ़ा हुआ जरा
कितना मजबूत लोहा है।
हां ! हां !जानती हूं पुराना किस्सा है।
कई बार कहा सुना है।
अब इस जंग खाती अलमारी से मोह क्या ?
मोह तो किस्से से है याद से है।
उस काली चमड़े की अटैची पर जम के हंसते,
जब मां कहती हरी है ।
चमड़ा पुराना हो कर काला हो गया था,
फिर भी हम खिजाते उसे, क्या मां! रंग नहीं पहचानती?
और जो ये मेज है, ना इसकी इसी छोटी दराज में,
पीछे, बिल्कुल पीछे, मै तुम्हारे खत छिपा दिया करती थी,
चोरी चोरी निकाल कर पढ़ने के लिए।
इसी तख्त पर तो बेटे की मालिश की थी दादी ने,
और सिले थे मां और बुआ ने इस पुरानी मशीन पर झबले।
ये जो बिना पाय और दरवाजे वाली अलमारी है ना
दादी की है,
उसकी दराज़ो ने पीढ़ियों की विरासते संभाली हैं।
कभी रसोई की शान बनी तो कभी पापा कि किताबें संभाली हैं
पीढ़ी दर पीढ़ी चलती अब बूढ़ी हो चली है
शायद अब संभाल मांगती है, एक बुजुर्ग की तरह उसे
भी एक कोने में रहने दो।
ये जो पुरानी किताब है ना हां!हां! गणित की
जानती हूं मेरा विषय नहीं है
लेकिन इसके कुछ पन्नों पर मां के हाथ से लिखे कुछ फुटकर नोट्स हैं धुंधले से , पढ़ने की कोशिश करती हूं
समझ तो नहीं आते लेकिन याद आती है किशोरी सी मां
इन पन्नों को पढ़ती हुई
और ये जो बिना कवर की डायरी है ना इसमें दादी ने उतारी थी पसंदो की रेसिपी
कहा था हम लिख जाएंगे सब कभी जो तुम्हें बनाना हो।
हां जानती हूं कोई नहीं खाता अब पसंदे पर
इसमें दिखती हैं वो बालकनी में बैठी
अपने झुर्रीदार कांपते हाथों से लिखती जाती थी पूरी दोपहरी
और ये पापा की डायरी
इसमें में उतरे हुएं है उनके पसंदीदा शेर
और दिखते हैं वो किशोर से उमंगों से भरे
होश संभालते
इसी से जाना था उन्हें जितना जाना
पढ़ कर लगता था अच्छा वो भी ऐसे थे
कितने रोमांच और रोमांस से भरे
इसी के आखिरी पन्ने पर एक शाम उतरी है
जब अपनी गुल्लक से उन्हें दिए हुए पैसों का हिसाब
मैने लिखा था और बकायदा दस्तखत करवाए थे उनसे कि पूरे दो रुपए उन्हें देने हैं, मेरे।
सुनो कबाड़ नहीं है, अब ढलती उम्र में याद आता बचपन है ये ।
पहले प्यार का अहसास है, मां दादी का आशीर्वाद है ।
सुनो!, इसे कबाड़ मत कहना, मेरा बीता कल है ये।
मेरी निजी धरोहर है ये। मेरा इतिहास है ये।
मनीषा वर्मा
#गुफ़्तगू