द्वार बंद कर आई हूं
सब चाबियां समेट लाई हूं
लेकिन ताले कहां रोक सकेंगे
बदलते समय के प्रवाह को
फिर भी एक समंदर अपने भीतर
समेट लाई हूं।।
अब द्वार बंद कर आई हूं।।
सांकल चुप थी दीवारें उदास
हां एक पंखा था पूरी शिद्दत के साथ घूमता
एक अधूरे दिलासे की तरह रोकता
उसे भी अलविदा कह आई हूं।
अब द्वार बंद कर आई हूं।।
आकाश बहुत नीला था उस छत पर
चांद सदा पूरा था उस आंगन पर
शाम उतरती थी सुनहरी भोर होती थी रूपहली
एक पैगम्बर था आगे पीछे एक ईश्वर था
अज़ान और घंटियों से भरी भोर छोड़ आई हूं
अब द्वार बंद कर आई हूं।।
तन पर पगधूलि लपेट आई हूं
छत पर थोड़ा भीग आई हूं
एक आखिरी बार छज्जे से
उतरता सूरज देख आई हूं
चिर परिचित वो शाम बटोर लाई हूं।
अब द्वार बंद कर आई हूं।।
फर्श पर धूल के बीच थे वो गढ्ढे
जो हमने तुमने मासूम उंगलियों से कभी भरे थे
एक चौखट थी कच्ची सी, मां के हाथ की बनी
उस पर इतराता बंदनवार छोड़ आई हूं
अब द्वार बंद कर आई हूं।।
एक गठरी बातें उन दीवारों की समेट लाई हूं
थोड़ी खुशी थोड़ी राहतें संग ले आई हूं
पूजा घर से भगवान उठा लाई हूं
हमारी उस देहरी पर शीश नवा आई हूं
तुम्हारे लिए मां के पुराने खत संभाल लाई हूं
अब द्वार बंद कर आई हूं।
मनीषा वर्मा
#गुफ़्तगू
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