बहुत इच्छा होती है वो
दो पल पास बैठे हाथ पकड़े
थोड़ा चलो साथ सैर ही कर आएं
थोड़ा गुनगुनाएं
नौकरी में था अब तक
कहां फुरसत थी
फिर बच्चे और दुनियादारी
वक्त ही कहां मिला
रिटायर हो गया तो वक्त ही वक्त
अब सोचता हूं वो पास बैठे
हम कुछ बात करें
उसकी बातें शायद चुक चुकी हैं
वो व्यस्त है सुबह का नाश्ता दिन का खाना
महरी से लगाई बुझाई
इधर साफ उधर पोछ
ना उसे वक्त नहीं मिलता
कितने तो आने जाने वाली हैं
महरी सब्जी वाली कूड़ा ले जाने वाला
सामने गली बुहारने वाला
दोपहर में आने वाली वो पड़ोसन
कीर्तन मंडली
सबको समय देती है
मेरे समय हाथ झटक कर कहती है
'जाने दो, बहुत काम है
तुम्हारा क्या फुर्सत ही फुर्सत'
कहीं ले जाना चाहता हूं उसे
कितना कहती थी चलो ना
इस बार गर्मी की छुट्टियों में नैनीताल
अब पूछता हूं तो बोलती नहीं है
बस देखती है मुझे जैसे मुझसे परिचय ना हो।
जैसे शायद सारी इच्छाएं उसकी
मर चुकी हों
अब उसकी दिनचर्या में
मैं अपना कोना खोजता रहता हूं
उसके वक्त में अपने हिस्से का समय ढूंढता
इस पार्क की बेंच से
नाता जोड़ रहा हूं।
#गुफ़्तगू
मनीषा वर्मा
नीरु ने अभी मुझे लिंक दिया। बड़ी मार्मिक कविता है। दो और भी पड़ी है,सब मन को छूने वाली हैं। मैंने उपन्यास जय कच्छ को ढूंढने की कोशिश की,। पर सफल नहीं हुआ। विजय सिंह द्वारा लिखित मिलते जुलते शीर्षक से उपन्यास 'जय गंगा' जरूर है जिस पर फिल्म भी बनी है और शायद फ्रेंच भाषा में रूपांतरित भी हुआ है।
ReplyDeleteवी के मलिक
मेरे पास है थोड़ी फटी हुई आपको दूंगी पढ़ने के लिए। कविता की प्रशंसा के लिए धन्यवाद
Delete