मैं उलझनों सुलझनों में उलझी थी
और जिंदगी बीत रही थी।।
कल पर कुहासा सा है
और कल अनजाना सा है ।।
पीछे आगे देखा जब नज़र उठा के
वक्त पाया बहुत थोड़ा सा है।
हाथों पर ना यादों का पुलिंदा है
ना उम्मीदों का बोझ कांधों पर ।।
सामने बस एक खालीपन सा है
जिसमे रंग भरती हूं और मिटाती हूं।
ये दिन भी और दिनों सा है
और मैं फिर उलझनों में उलझी रीत रही हूं धीरे धीरे ।।
मनीषा वर्मा
#गुफ़्तगू
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