काश! मैं एक भेड़ होती
लकीर की फकीर
चलती चुपचाप,
बिना प्रश्न, सिर झुकाए
एक दायरे में रहती
लक्ष्मण रेखा के भीतर
जीती एक आम सी जिंदगी
खटती रहती चूल्हे के आगे
और चलती नटनी सी
रिश्तों की रस्सी पर
चारदीवारी की धूरी पर घूमती
चिंता होती केवल अब क्या पकाना है
ओह चादर फिर बदलाना है
खिड़की पर की धूल झाड़नी है
सवेरे सबको दफ्तर स्कूल जाना है
पड़ोसन की कटोरी भर चीनी लौटाना है
एक सरल सा जीवन
अपने में सिमटा हुआ मैं जीती
काश मैं भेड़ होती
तुम्हारे मन की होती तब
तुमको मैं कितनी पसंद होती।।
मनीषा वर्मा
#गुफ़्तगू
बेहतरीन प्रस्तुति
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ReplyDeleteवाह, अद्भुत! मन की ऊहापोह का सुन्दर चित्रण है यह रचना!
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