माटी कहे कुम्हार से तू क्या रुँधे मोए इक दिन ऐसा आयेगा मैं रुँधूगी तोए
ये उठता धुंआ ये सुलगती लाशें
ये बच्चों की चीखें
ये स्त्रियों का रूदन
ये खंडहर शहरों के
ये मलबों में दबे मासूम हाथ
ये अध कटे बदन
ये सड़कों पर चीथड़े मांस के
ये किस ने बारूद से उड़ा दी हैं
मानवता की धज्जियां?
मनीषा वर्मा
#गुफ़्तगू
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