एक बार धरती ने कहा आकाश से
मुझे अपना लो
आकाश हंसा
दंभ से
धरती की ओर झुका भी
पुलकित सी धरती दूर क्षितिज तक
दौड़ती चली गई
आकाश पाने को
तब आकाश पुनः हंसा
और पहुँच गया एक नए छोर पर
धरती फिर दौड़ी ,आकाश और ऊंचा उठा
और फिर एक दौड़ और फिर एक हंसी
दौड़ और हंसी
हंसी और दौड़
नए छोर नए क्षितिज खिंचते चले गए
पाने में आकाश को धरती रही खुद को खोती
और आकाश निर्विकार रहा हंसता
उसकी पुलकों पर फिर भी रही धरती दौडती
पर, पर क्यों रही धरती दौड़ती ???
एक नई रचना एक नई संसृति जनमती रही दौड़ती
धरती आकाश में लीन रह आकाश पाने को
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