यह कविता मैंने सन 1991 में हरिद्वार के एक कवि सम्मलेन में पढ़ी थी. उसमे मैं अपने कालेज की तरफ से भाग लेने गयी थी! आज बहुत समय बाद इसे फिर प्रस्तुत कर रही हूँ कुछ बदलाव के साथ. समय के साथ कुछ पंक्तियाँ बदली है, जैसे अन्ना का ज़िक्र इसमें पहले नहीं था पर अब सम्मिलित किया है. कुछ पंक्तियाँ हटा भी दी हैं.
सुना!, गांधी आज भी जिंदा है!!
क्या विश्वास नही होता ,
क्या इसलिए की
जला आए थे उसे
बहा दी थी अस्थियाँ
हाँ, जला था वह
बही भी थी अस्थियाँ
पर बह कर पहुँची थी कहाँ
वाही उन्ही अबोध खेतों में ना
और, और हर अस्थि अवशेष से फूटा आया था
हाँ सुना हर अस्थि से फूट आया था
एक और महात्मा , एक और गाँधी, एक और बापू
नहीं मानते?
तुम नहीं मानोगे
क्योंकि तुम डरते हो
डरते हो तुम गाँधी से
उसकी देह से झांकती हड्डियों से
भूख से कुलबुलाती आंतो से
पर कहा था ना तुमने
काफी के प्यालो के बीच होने वाली चर्चाओं में
स्टेज पर , भाषणों में , कांफ्रेंसो में
या कबी सिनेम के परदे पर
कभ्जी कभी फुटपाथ पर आग तापते हुए
तुम्ही ने तो कामना की थी
गाँधी के लौट आने की
पर ये इच्छा , इच्छा तक ही सीमित थी तुम्हारी
नहीं चाहते थे तुम , की गाँधी जन्मे पुनः , तुम्हारे घर में?
और उसके आदर्श बहा ले जाएं तुम्हारे चारो ओर खड़ी
इस सड़ी-गली व्यवस्था की चारदीवारी को
इसीलिए नकारते रहे , नकार रहे हो उसके होने को
पर क्या फर्क पड़ता है
गाँधी तो जिंदा है तुम में
सच सच बतलाना
कल नहीं बांटी थी के तुमने अपनी रोटी उस भिक्षुक के संग
दी नहीं थे क्या कपडे उस नंगे को
जब बिछी थी साम्प्रदायिकता से लाशें
तब हिन्दू हो कर भी क्या तुमने उस सिख को नहीं था छिपाया
ओर सिख हो कर भी तुमने हिन्दू रक्षा के लिए कृपाण था उठाया
कल ईद की सेवइयाँ तुमने मंदिर में थी खाई
चर्च जा कर भी तुमने दिवाली थी मनाई
ओर अन्ना के साथ रामलीला मैदान में
सरव् जन मानस के हित में
आवाज़ भी तुमने ही तो थी उठाई
आज फिर भी तुम पूछते हो गाँधी कहाँ है
हे अबोध अनजानों पहचानो गाँधी को
इतना ही था बस गाँधी के वह नहीं डरा
अपनी लघुता से लड़कर था ऊँचा उठा
आज अब स्वीकारो इसे की
तुम स्वयं गाँधी हो
और राम राज्य किसी और का नहीं तुम्हारा सपना है
क्योंकि गाँधी आज भी जिंदा है
हम सब में थोड़ा थोड़ा
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