मेरी डायरी के कुछ पन्ने
माटी कहे कुम्हार से तू क्या रुँधे मोए इक दिन ऐसा आयेगा मैं रुँधूगी तोए
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Wednesday, February 22, 2012
अ-मानव
मानव तुम,
नहीं ,
पशु समान भी !
गढ़ कर दो पंक्तियाँ
प्रशंसा में अपनी ही
बतलाते हो
स्वयं को ब्रह्म का उपहार
भली है तुमसे
जड़-जीव , प्रकृति ही
तुम तो हो केवल
नृशंस -स्वार्थ मूर्तिमान
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