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Monday, May 16, 2011

आवाज़ हूँ अंतर मन की

मैं आवाज़ हूँ अंतर मन की, तुम्हारी चेतना अवचेतना के

बीच की कड़ी,
स्वीकारो या ठुकरा दो अपने आप से कैसे
भाग सकोगे,
जब सांझ ढलेगी और सूरज की लाली फैलेगी
लौटेंगे पखेरू जब घर को,
तब यादों के किसी कोने से मैं तुम्हे पुकारूँगी ॥
मुझे पोस के रखना,
वरना अंधियारी काली रातों मे,
चाँदनी मे और अमावस मे,
तकिये पटकते रहोगे चादर पर पड़ी सिलवटें सीधी करते

रहोगे
पर नींद कहाँ से आएगी?
वो तो मेरी खामोश चीत्कारों मे गुम हो जाएगी।
मैं आवाज़ हूँ तुम्हारे अंतर्मन की,
कहीं नही जाऊंगी,
तुम्हारे पदचिन्हों का लेखा जोखा हर आईने मे तुम्हे

दिखाऊँगी।
मैं सिर्फ़ आवाज़ हूँ अवचेतन मन कि एक झंकार हूँ॥

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