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Saturday, August 15, 2015

जिन कंधों ने संगीन उठाई उनके साथ ही द्रोह हुआ

जिन कंधों ने संगीन उठाई
 उनके साथ ही द्रोह हुआ
उस पर उनके अपने ही
आज हाथ उठाते है
सम्मान कभी मिलना था जिन्हें
 घूँट अपमान का पी रह जाते हैं
जिन कंधों ने संगीन उठाई
 उनके साथ ही द्रोह हुआ

अपना ही अधिकार मांगना
हो अपराध कब से गया
तिरंगा जिस के शव का हो अधिकार
वह इतना विवश क्यों हो गया
देश के पूर्व प्रहरी को
जो आँख दिखाते हैँ
याद करें कभी उसकी निगरानी में
सपने सुखद सजाते थे
जिन कंधों ने संगीन उठाई
उम्र के बोझ तले झुके जाते हैं


सीमाओं की रक्षा के लिए उसने
जीवन भर संघर्ष किया
घर जो लौटा तो पाया
भाई ने भाई से भेद किया
जिस घर गांव की रक्षा में
उसने अपना सर्वस्व दिया
वहीं कभी नदिर ने कभी नस्जिद ने
एक दूजे को ख़ाक किया
जिन कंधों ने संगीन उठाई
 उनके साथ ही द्रोह हुआ

हंस कर उसने हर वेदना में
जिनका साथ दिया
उसी देशवासी ने
उससे कैसा घात किया
नेताओं की बपौती
आज उसका देश हुआ
आज  रूपया हर बात में सर्वोपरि हुआ
उसने जाना उसके बलिदान का मूल्य
कितना अब क्षीण हुआ
जिन कंधों ने संगीन उठाई
 उनके साथ ही द्रोह हुआ

मनीषा

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