हथेली पर उतरी धूप का एक टुकड़ा
या है ये बीते लम्हों का एक कतरा
आज में कल थोड़ा थोड़ा समाया हुआ
और कल में आज थोड़ा सा बिसराया हुआ
हथेली पर मेरी सुनहली मेहँदी सा रच गया
धूप का ये नन्हा सा कतरा
नभ के आशीष सा मन में उतर गया
अकेली सी बैठी थी मैं एक सदी से
मुझ अनजानी से पहचान कर गया
हंस कर जाने कितनी बाते कर गया
मनीषा
या है ये बीते लम्हों का एक कतरा
आज में कल थोड़ा थोड़ा समाया हुआ
और कल में आज थोड़ा सा बिसराया हुआ
हथेली पर मेरी सुनहली मेहँदी सा रच गया
धूप का ये नन्हा सा कतरा
नभ के आशीष सा मन में उतर गया
अकेली सी बैठी थी मैं एक सदी से
मुझ अनजानी से पहचान कर गया
हंस कर जाने कितनी बाते कर गया
मनीषा
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