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Friday, May 1, 2015

अमृता



भीगी माटी से उठा कर 
अक्षरों को कागज़ पर रख दिया 
कविता महक गई 
रचना अमृता हो गई

फूली सरसों के बीच से 
गुज़र कर आई हैं पंक्तियाँ 
और मेरे देश की ज़ुबां हो गई 
तुम अक्षर अक्षर होती रही 
मुल्क बनता रहा बिगड़ता रहा 
दर्द पिरोती साँझ उतरती रही 
तुम स्वयं मसीहा होती रही

कोरे कागज़ पर बिखरे 
एक मुठ्ठी अक्षर 
किरणों को तराशते सूरज 
की खोज में भटकते रहे 
साहिल दर साहिल 
जाने कब तुम दरगाह हो गई 
मनीषा

31 October 2005

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