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Sunday, August 31, 2014

उसने चाह कर मुझे

उसने चाह कर मुझे, ये कैसी सज़ा अता कर दी 
बना कर अपनी जां , मुझे मौत अता कर दी 
मनीषा






Saturday, August 30, 2014

बात तो कुछ न थी

बात तो कुछ न थी 
उसने दूरियां चुन ली 
और मैंने ठहरे हुए लम्हे 
मैं चुन देती हूँ 
शब्दों में दर्द अपने 
वो चुप रहता है 
मैं पुकारती हूँ उसे हर नफ़स 
और वो मेरी खबर रखता है 
मनीषा

Thursday, August 28, 2014

याद की तश्तरी में

याद की तश्तरी में चाँद परोसे बैठी हूँ
मैं दिल में एक लम्हा समेटे बैठी हूँ

तू खींच ज़मीं पर लक्ष्मण रेखाएँ
मैं सारी बेड़ियाँ खोले बैठी हूँ

तुझे सौंप कर छाँव की पनाहें
मैं आग का प्याला थामे बैठी हूँ

तुझे मंज़ूर होंगी संस्कृति की दुहाईयाँ 
मैं इतिहास जनने बैठी हूँ

मनीषा


Wednesday, August 27, 2014

दिल से दिल के रिश्ते

दिल से दिल के रिश्ते 
अक्सर सिर्फ दर्द बन जाते है 
जो दिल के पास होते हैं 
वही लोग
अक्सर बदल जाते है 
मनीषा

तेरी याद की चिंगारी

तेरी याद की चिंगारी 
रात सिरहाने बैठी रही
मैं मद्धम मद्धम सुलगती रही 
तेरे फैसले फ़ासले बनते रहे 
मैं आहिस्ता आहिस्ता राख होती रही 
मनीषा

खाली झोलियाँ रूखी बोलियाँ

खाली झोलियाँ रूखी बोलियाँ
सुनता रहे गुनता रहे
कैसा ये पागलपन
सब अजनबी चेहरे यहाँ 
अपना कौन यहाँ
ढूँढता फिरे किसको हर पल
फिरता रहे यूँ आवारा मन
खाली झोलियाँ रूखी बोलियाँ
सुनता रहे गुनता रहे
कैसा ये पागलपन
कहीं से तो कोई बुलाए
प्यार के नाम फिर दोहराए
खोजता फिरे ये क्यों अपनापन
सुनता रहे यूँ बावरा मन
खाली झोलियाँ रूखी बोलियाँ
सुनता रहे गुनता रहे
कैसा ये पागलपन
मनीषा

Friday, August 22, 2014

ज़िंदगी, फिर जीत जाती है

क़लम  कुछ रुक जाती है
भार  इस विषाद का सह नहीं  पाती है
लेखनी सीमित रह जाती है
व्याकरण कभी अधूरी रह जाती है
भाव आवेग शब्दों में ढाल  नहीं  पाती है
घात आघात पर  वाणी मूक रह जाती है
फिर न जाने कैसे
इस गहन अंधियार में, एक दीपबाती  टिमटिमाती है
निराशा में आशा जाने कैसे मुस्काती है
एक भोली मुस्कान से,
हारते हारते  ज़िंदगी, फिर जीत जाती है
मनीषा 

Thursday, August 21, 2014

मेरे भीतर अब प्यार नहीं है

मेरे भीतर अब प्यार नहीं है 
सपनो का वो मृदु संसार नहीं है 

आँखों में वो उड़ान नहीं है 
पलको पर उजालों का वास नहीं है 

होंठों पर सहज मुस्कान नहीं है 
मन में वो भोला विश्वास नहीं है 

कदमों में उमंग भरी ताल नही है 
कंठ का वो मृदु गान नही है

विश्वास का कहीं आधार नही है
समर्पण का वो भाव नही है

तुम्हे देने को कान्हा कुछ मेरे पास नहीं  है 
राधा सा प्यार मीरा  का भाव नही है 

तुम पर मेरा अधिकार नही है 
अर्द्धांगिनी कहलाने का वो मान नही है 

मनीषा

Wednesday, August 20, 2014

एक शाम उदास ढल जाती

यूँ  ही दिन गुज़र जाता है
कभी बात करते नहीं
कभी बात हो नही पाती
एक शाम उदास  ढल जाती
मनीषा 

Monday, August 18, 2014

कैसे भूलोगे

तुम भूलोगे हर बात 
मगर मन की खोली हर गाँठ कैसे भूलोगे 

आँखों ने पढ़े जो 
आँखों के भाव कैसे भूलोगे 

बिन शब्द की जो 
उस इक लम्हे हमने बात कैसे भूलोगे 

तुम कर लोगे हमारे बीच खड़ी कोई दीवार 
पर मन के ये एहसास कैसे भूलोगे

छुप कर तुम भी देखोगे मुझे दूर से
मेरा यह साथ कैसे भूलोगे

पूछोगे हौले से हर परिचित से मेरा हाल
मेरा यह गान कैसे भूलोगे
मनीषा

Sunday, August 17, 2014

अब कोई घर बुलाता नहीं

रात भर रौनकें लगाता नहीं
अब कोई घर बुलाता नहीं
सूना बीत जाता है त्यौहार
अब कोई इधर आता नही
सिमट जाती है आँगन में उतरी धूप
कोई सांकल खटखटाता नही
बीत जाते हैं दिन महीने साल
अब कोई प्यार से पुकारता नही

सिमट कर रह गए घड़ी के काँटों 

में सब व्यवहार 
अब कोई साथ वक़्त  बिताता  नहीं
दिलों में उतर चुके जाने कितने मलाल
अपनों को देख अब कोई मुस्काता नही
मनीषा

मेरे घर की सूनी देहरी पर




मेरे घर की सूनी देहरी
पर कुछ उजाले रखे हैं
यादों के पन्नों पर उतरे
कुछ अफ़साने रखे हैं

झड़ती दीवारों की दरारों पर
गुदगुदाते ठहाके रखे हैं
फर्श पर बिखरी धूल पर
अलक्तक कदमों के निशां रखे हैं

उन दो कमरों में बंद
मानमनुहार के तराने रखे हैं
बालकनी में पड़े टूटे तख्त पर
तुम्हारे गुनगुनाते गान रखे हैं

उस घर में सन्नाटों में गूंजते
कुछ तुम्हारे मेरे स्वर रखे हैं
एक दराज़ में सम्भाल माँ ने
तुम्हारे वो ख़त रखे हैं

पुराने आले में सजे
तुम्हारे कुछ उपहार रखे हैं
छीन झपट होती थी जिनके लिए
कुछ उदास थाल रखे हैं

रात दिन हुए तेरे मेरे  बीच के
हास परिहास रखे हैं
उस छत के नीचे आज भी
माँ पापा के आशीर्वाद रखे हैं


सीढ़ियों पर कुछ भूले
पदचाप रखे  हैं
दरवाज़ों पर हल्दी
कुमकुम  के थाप रखे  हैं

मंदिर में अब भी
माँ  के भगवान  रखे हैं
लाल कपड़े में लिपटे
गीता पुराण रखे हैं

ड्योढ़ी पर आस भरे
इंतज़ार रखे हैं
पुरानी अलमारी में संभाल कर
दर्द के अहसास रखे हैं

हर ज़र्रे ज़र्रे में कुछ
अधूरे अरमान रखें है
आँगन की  सूखी तुलसी में
दर्द के अहसास रखे हैं

कैसे सहेजूँ और क्या क्या सम्भालूँ
उस घर में जाने कितने बुझे चिराग रखे हैं

मनीषा

Friday, August 15, 2014

बिटिया मेरी सौगात है





बिटिया मेरी सौगात है 
किस्मत का अनमोल उपहार है 
मेरे घर आया त्यौहार है 
घर भर का श्रृंगार है 

थकी माँ के हाथ में थमा पानी का गिलास है 
पापा के आने पर खिलखिलाता स्वर है 
भैया की कलाई पर सजी राखी है 
भाभी के साथ मृदु गप्पों का अहसास है 

हर कोने में गूंजती पायलो की रुनझुन है 
कमरे में सजी रंगबिरंगी चूड़ियों की खनक है 
घर में फैली कच्ची रोटियों की महक है 
रसोई में नन्हे हाथों से बनी पहली दाल का स्वाद है 

घर की दीवारों पर सजी उसकी कला है 
सहलियों के साथ उसकी गुनगुनाती आवाज़ है 
मन को हंसा देने वाली उसकी तुतली बातें है 
कितने भोले घर घर वाले उसके ये खेल हैं 

जब से आई है मन में कुछ बदल गया है 
जग जैसे सारा मेरा खिल गया है 
ईश्वर का वरदान है 
एक खूबसूरत गुदगुदाता एहसास है 
बिटिया मेरी 
मेरे घर की जान है 

मनीषा



Thursday, August 14, 2014

गुम हो गई 'गर

गुम हो गई 'गर दुनिया की भीड़ में 
लौट के फिर ना आऊँगी मैं
तुम खुशबू सा बसा लो अपने दिल में 
इन तेज़ हवाओं से बिखर जाऊँगी मैं 
मनीषा

Thursday, August 7, 2014

तुम्हे क्या समझूँ


तुम्हे क्या समझूँ ?
और कैसे ?
अपने से हो
पर पराए  लगते हो
कभी रख देते हो
मेरी आँखों में आकाश
कभी कदमों  तले बिछी
धरती भी छीन लेते हो
तुम्हें  ओढ़ लेती हूँ
हर रात ख़्वाब  बुनने से पहले
तुम हो कि  मेरी नींद भी छीन लेते हो
रोज़  दिलासों से सी लेती
हूँ अपना उधड़ा  हुआ रिश्ता
तुम हो कि फिर
नए सिरे  से चीर देते हो
मनीषा