फिर आई रात फाल्गुनी
पाँव में मेहँदी रचाए
फिर आई उषा धवल ओस में नहाई
पुष्प रंजित धरा का श्रृंगार करती
चलता होगा नभ शिखर पर उन्मत्त
मेरे प्रांगण को नमन करता रवि
और आती होगी वही आज़ान
मस्जिद के उन्नत शिखर से
वहीं गूंजता होगा उस मंदिर से
मृदु घंटियों का आवाह्न
इन सबके बीच लेती होगी
व्यस्त ज़िंदगी अंगड़ाई
याद आती हैं बचपन की वो
मासूम गलियाँ
और छतों पर उड़ती
पतंगों की अठखेलियां
ढलती उम्र में बेहद याद आती हैं
वो बालापन की मीठी नादानियाँ
#गुफ्तगू
मनीषा वर्मा
यादों में बहुत कुछ बसा रहता है । सुंदर रचना ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर!!
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteधन्यवाद
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