Pages

Thursday, July 7, 2011

कुछ पंक्तियाँ

घर-आँगन  छूटा, गाँव छूटा, देश छूटा 
ये कैसी प्रीत मितवा ये कैसी प्रीत
उजले देश की उजली रीत
बंधी है पलकों में  फिर भी 
इस देस की पीर 


ज़िंदगी ने बदल ली हैं कई परते फिर भी
नाम तुम्हारा पन्नो पर उतर ही आता है
रोक लेते है कलम अकेले मे भी
कभी नाम इबादत का भी रुसवा हो ही जाता है


मुझसे मेरे ख्वाब उसी ने चुराए
खेल था जिसके लिए मेरी इबादत

जिन्हे समझा था अपना वो हो गये पराए
गैरों ने दी है सदा इस दिल को पनाहे मुहब्बत


तेरे इशक में हुआ है मेरी मदहोशी का आलम ये
की खबर नहीं की तुझे चाहती हूँ या सिर्फ तेरे ख्याल को




No comments:

Post a Comment