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Wednesday, January 29, 2014

कुछ पंक्तियाँ

 मैं तेरी सांसो में बसना चाहती हूँ इस कदर
कि तेरे एहसास में भी रहूँ और तुझे भी न हो खबर

देख तेरे प्यार की  इंतहा ने क्या कर दिया
मुझे मेरे आप से तन्हा कर दिया


मेरे ख्याल भी कहाँ अपने रहे
वो भी तो बेमुरव्वत तेरे ही हो गए

बार बार मेरे इश्क़  की इंतहा न पूछ मुझसे
न खुद से रिश्ता रहा न रहा रब से

तुझको पा कर शायद तुझसे महरूम हो जाती
ये दर्द तुझे खोने का नही मेरे साथ बैठे हर ख्याल का है

मेरे तरन्नुम में उतर आई है तेरे दिल की बात
आज इसी बहाने से कह  तो लेने दे मुझे भी अपने दिल की बात

सारा जहाँ तो कम है तेरी नज़र करने के लिए 

तूने माँगा भी तो क्या माँगा दीवाने से चाहत के लिए 

मुझे बेखबर इसी  गफ़लत  में रहने दे
तेर इश्क़ की  जुस्तजू यूं ही रहने दे

मनीषा


Tuesday, January 28, 2014

अपने

आज कुछ अपने मिले
कुछ बिछड़े रिश्ते मिले
अपनों में पराए  मिले
परायों में अपने मिले

कुछ आँखे भीगीं
कुछ शाखें सूखी
कुछ बातें निकली
कुछ खबरें उड़ी

आज पुराने किस्से बूझे
आज नए संवाद मिले
कुछ तुमने वादे बरते
कुछ मैंने रिवाज़ निभाए

चलो फिर बिछड़े  मीत  मिले
जीवन के कुछ गीत मिले
बुज़ुर्गों के आशीष मिले
बच्चों के संवाद  मिले


आज ज़िंदगी फिर लौटी
आज रौशनी फिर फूटी
मेरी मुझे पुकार मिली
फिर अपने से मैं आप मिली

बचपन के मीत  मिले
मेरे होंठो को फिर वही  गीत मिले
दुनिया की भीड़ में तुम मिले
फिर एक बार मेरे शब्दों को अर्थ  मिले

 मनीषा 

Monday, January 20, 2014

तुम और मैं

मुंडेरों के
इस पार , उस पार
तुम और मैं
पारदर्शी दीवार से
झांकते मिलते
पर लकीरों के आऱ  पार
रिश्तों की बुनियादें
लकीरें माप कर खींची जाती हैं
एक दायरे में नींव खोदकर
घरौंदे  बनाने पड़ते हैं
रिश्तों को खुला आकाश
क्यों नही दे देते
असीम से असीम तक
हरी धरती पर पीले फूलों सा पसरा हुआ 

खंडहर

कहते हैं मिला है खंडहर कहीं उजड़ी बस्ती का 
उतरा तभी ख्यालों में मेरे नक्श उसी खुदाई का 
पड़ा होगा किसी पिंजर पर पहरन मेरे बदन का 
किसे पता नसीब भी था इसे पर्दा कफ़न का 
उधार की सी ज़िंदगी है , मिटटी से बनी मिटटी है 
मिट मिट कर बनते रहना है मुक्क़दर किसी किसी का
शोख हवाओं में लहराता फिरता है जो आज अक्स मेरा
कैसे भूलूँ मुक्द्दर में है इसके फ़क़त ज़मीं का ही सीना

by me मनीषा

इबारत

बड़ी मुद्द्त में  मुलाकात हुई ,फिर अपने आप  से
मैं थी तेरी दुनिया के ताने बाने में उलझी हुई
वक्त की गर्दिशों में ,हुई वो कहाँ फ़ना
एक पत्थर पे थी मेरी भी इबारत खुदी हुई
 मनीषा

सिर्फ इतना चाहिए था

सिर्फ इतना चाहिए था 
बस तुमसे सिर्फ इतना चाहिए था 
आसमां नहीं एक छत 
धरती नही नर्म घास 
एक घरोंदा आंचल सा 
थोड़ी धूप थोड़ी छाया
पल भर थकन मिटाने का विश्राम
थोड़ा रो लेने को एक कांधा
थोड़ा मुस्कुराने का सामान
सुख दुःख बटते थोड़े
वादे इरादे होते थोड़े पूरे
कहाँ माँगा था तुमसे पूरा आसमान
बस तुमसे सिर्फ इतना चाहिए था
मनीषा

Monday, January 13, 2014

बा





गाँधी को जीना आसान है 

बा' बनना बहुत मुश्किल 
सहचरी, सहधर्मिणी , अर्द्धांगिनी 
वो एक सरल गृहिणी 

अपने ही आप से जूझती 
धर्मविलंबी सहचर के यज्ञ में आहुति देती
पर अपने ही सपनों को भूलती
उनके पथ पर पग धरती
पृष्ठभूमि में रहने वाली
बा
इसलिए कहती हूँ
गाँधी को जीना आसान है
बा को जीना बहुत मुश्किल
सीता का वनवास
यशोधरा की पीड़ा
बा का त्याग
राम , सिद्धार्थ और गाँधी
नहीं जी पाते
इतिहास में अमर हो जाना आसान है
इतिहास में विलुप्त हो जाना बहुत मुश्किल
मनीषा

Thursday, January 9, 2014

दर्द

मेरी नाराज़गी ज़माने से नही
तेरी एक चुप से है
गैरों से तो उम्मीद ही क्या थी
ये दर्द  तेरी ठोकर से है 

चुप

तुम्हारी  एक चुप
जैसे भरी सभा में
धृतराष्ट् के आगे
गिड़गिड़ाती  द्रौपदी हो 

बहुत दिन हुए तुम्हारा नाम लिखे

बहुत  दिन हुए तुम्हारा नाम लिखे कोरे पन्नों  पर
कभी तरस जाती थीं  कलम पकड़े उँगलियाँ
नाम को तुम्हारे गीली स्याही में
और कभी कॉपी  के पन्नों  के पीछे
किताबों  के कोनों पर अक्षरों में
 उतर आता जो
झटपट स्याही ढाँप  देती थी मानों
आंचल से ढाँप  दिया हो तुम्हारा चेहरा
 पर फिर भी तुम्हारे नाम के तीन आखर
झाँकते   मुस्कुराते थे मेरे गालों  पर उतरी लालिमा में
और हार कर  कंपकंपाती उँगलियाँ
सहेज कर धीरे से वह  पन्ना फाड़ देतीं  थीं
जिस पर उतर गया था अनजाने में तुम्हारा नाम
और दुहराते उस नाम को वहीं  अधरों पर भींच लेती थी
और कदम, छिटक कर खुद ही चल देते थे
तुम्हारे ही ख्यालों में दूर कही
मनीषा

उसका घर

उसके छोटे से घर में  छोटे छोटे पहिए लगे थे
चमकती आँखों में कितने सपने सजे थे
धूप  से चेहरा लाल था
हाल बहुत बेहाल था
पर उमंगों  में वह खुश था
कितना प्यारा था
स्वप्न  सा सुंदर उसका घर था
गुड़िया का  सुंदर घर
छोटी छोटी खिड़कियों पर
चुनरी के पर्दे वाला घर
उसका मन उमड़ आया
उसने लपक कर डोर को उठाया
और दौड़ चला वह  सड़क पर
पीछे पीछे चला डगमग डगमग उसका छोटा सा घर
तभी खा ठोकर बिखरा उसका गत्ते की  खिड़कियों वाला घर
बिखरा ताश के पत्तों सा वह  प्यारा घर
बचपन हुआ परेशां  रुआँसा ढुलके आँसू  गालों  पर
बदली तभी छा गई , सूरज को घटा खा गई
भीगता वह  आया अपने घर
माँ  को घर बुहारते पाया
कमरे में घुटनों  तक पानी पाया
टूटी छत रिस रही थी, छोटी बहन पालने में रो रही थी
उसके रोते चेहरे को देखा , हाथ में टूटी डोरी को देखा
माँ  ने समझा बिन पूछे ही
छोटी को चुप कराते वो बोली
बेटा  स्वप्न  हमेशा टूटा ही करते हैं
बहादुर बच्चे नहीं  रोया करते हैं
अपना संसार यही है
घर द्वार यही है
टूटे छप्पर  वाला टूटा फूटा घर
कल आने दे फिर चिपकाएंगे
तेरा सपने जैसा घर
आज तू टपकती इस छत के नीचे
ज़रा बाल्टी तो रख
चल बेटा  आँसू  पोंछ
ज़रा  माँ  की मदद तो कर
मनीषा

Wednesday, January 8, 2014

परिचय

मैं परिचितों के मध्य अपरिचित सी
वे  परिचित थे मुझसे और मैं अपरिचित
परिचय  वितरित हो रहे थे
कुछ मैंने भी बटोरे और कुछ बाँट दिए
काल चक्र के पहिए में
धीरे धीरे पिस  गए सभी परिचय
अब मैं परिचित थी उनसे
और वे मुझसे अपरिचित
अपरिचितों के मध्य एक
 तटस्थ शून्य बिंदु मात्र
सब चलता रहा यथावत
परिचय अपरिचय ,
मिलन बिछोह का खेल
कभी धुधंलता रहा
 कभी साफ़ होता रहा
अब मैं थी और परिचय
अनुभवों का संचय
स्मृतियों के पुलिंदे
पन्नों पर उतरते-अक्षर मात्र
गर्त सी उड़ती रही
हर बटोही से परिचय पूछती रही
अपना पता खोजती  रही

मनीषा



पाती

दिल में छिपा सको तो नाम मेरा  छिपा लेना
मन में समो सको तो प्यार मेरा बसा लेना
 ना  नज़र आऊँ  कभी  आँखों मे तुम्हारी
कोई नज़र मिलाए तो तुम पलकें  गिरा लेना
खिल उठे  तन्हाई में कभी याद मेरी
किसी किताब में उस खुश्बू को दबा  देना
कभी चलते चलते ,साथ अपने, कदम पाओ  मेरे
तो होंठों  की मुस्कान को वहीं छिपा लेना
देखो पिया कोई पूछे अगर किसे खोजती रहती हैं नज़रे
कहीं नाम मेरा तुम न बता देना
वक्त अगर मिला दे किसी मोड़  हमें यूँ  ही
तब हाथ अपना तुम भी आगे बढ़ा देना

मनीषा