मैं पूछना चाहती हूं
नदी से क्यों चुप सी बहती है?
पूछना चाहती हूं पहाड़ से
क्यों दर्प से तना है ?
पूछना है मुझे समुद्र से
क्यों इतना बेचैन है?
ओर पूछना है इस धरती से
क्यों सब सहती है?
पूछना तो मुझे यह भी है
ईश्वर से
निष्पक्ष क्यों नहीं है तुम्हारा न्याय?
किंतु परंतु से हट कर
चुप है ईश्वर
निरुत्तर खड़ा है
एक स्वर्णद्वार के परे
शायद अपनी ही कृति पर विस्मित
अचकचाया सा प्रश्नों से बचता हुआ।
आखिर कहे भी तो क्या?
शायद उसने भी नहीं सोचा था
सूर्य और चन्द्र के बीच
मन का इतना गहन अंधेरा होगा।
और मैं
एक प्रश्न चिन्ह सी
हाशिए पर खड़ी हूं
निरुत्तर
निःतांत अकेली।।
मनीषा वर्मा
#गुफ़्तगू
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