बार बार उन बंद दरवाजों पर दस्तक दे लौट आती हूँ
बार बार अपनी वेदना से विवश फिर उसी देहरी पर लौट जाती हूँ
अब परिचित सा लगता है वो दरवाज़ा
खुलता तो नहीं है
पर जैसे हर बार पूछ लेता है
"कैसी हो तुम , फिर लौट आई हो तुम
तुम एक दम मेरे जैसी हो
अपने भीतर बंधी गांठो से विवश
और मैं अपने भीतर मजबूती से लगी सांकल से "
मैं फिर धीमे से कभी जोर से दस्तक दे रूकती हूँ देर तक
और पौ फटने से पहले लौट आती हूँ
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