मन भर आने पर जब बोल अन्दर ही घुटते हैं
जब निरीह पीड़ा से आंसूँ नहीं झरते
तन्हाई में परायी पीर भी जब झकझोर जाती है
और ढलते सूरज के साथ आस की परछाई भी ढल जाती है
तब विवश मन में विचार घुमड़ते हैं
और
किसी खाली पन्ने की वेदना भरी मरुभूमि पर
कविता जन्म लेती है
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