कहते हो की हमारे बीच का प्रसंग यूँ ही चलने दो
लेकिन सूनी रात , भीगी पगडंडियों पर
घिसट घिसट चलने और रुकने की कोशिश में
जब कदम सहम जाते हैं
एक चुप्पी आवाज़
मेरे भीतर से फिसल
पहुँच जाती है कहीं दूर
सुन पाती हूँ - प्रतिध्वनि मात्र
एहसास तब करती हूँ
कितना फर्क है चलते रहने और रुक जाने में
तुम्हारे वे अंदाज़ जो मेरी समझ से बाहर हैं
पहेली से बन गए हैं
उन्हें बूझ ना पाने की लाचारी में
एहसास करती हूँ
कितना फर्क है समझ लेने में और ना समझ पाने में
जब मेरी ही अधरों से कहला कर और
मुझे मेरी ही बातों में उलझा कर तुम हंस देते हो
तब एहसास करती हूँ
कितना फर्क है कह देने और चुप रह जाने में
कभी अनचाही यादों के पुलिंदे
छांटती हूँ और कोई बहका सा ख़याल
मुझे बेचैन कर देता है
तब एहसास करती हूँ. कितना फर्क है
याद रखने और भूल जाने में
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