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Monday, July 21, 2014

इंसान का तमगा लिए फिरते है

हम हैवान आदम हुए फिरते हैं
इंसानियत मार  चुके
इंसान का तमगा  लिए फिरते है

शान बान  बहुत है अपने पास
जानवरों  से खुद को उम्दा बता लेते  है
हम हैवान आदम हुए फिरते हैं
इंसानियत मार  चुके
इंसान का तमगा  लिए फिरते है

क्या बात है जो भूख मिटती  ही नही हमारी
नोच खा लेते हैं इक इक बोटी
हो बेटे या फिर अपनी बेटी
कत्ल तो आम है
हम तो भून कर खा लेते हैं
शिशुओं  को अपने ही
ज़िंदा दफ़ना  देते हैं
हम हैवान आदम हुए फिरते हैं
इंसानियत मार  चुके
इंसान का तमगा  लिए फिरते है

इज़ाद करते हैं एक से एक हथियार
सुरक्षा का सिर्फ भरम बना लेते है
जिस डाल  पर रहते हैं उसी को काट देते हैं
हम बाप  के सीने में भी खंजर उतार  देते हैं
मोहब्बत के नाम पर सूली पर चढ़ा देते हैं
हर बात पर धर्म का सिला देते हैं
शहर के शहर खुद के नाम पर मिटा देते हैं
अपनी ही बहन बेटी की अस्मत बिकवा देते हैं
हम हैवान आदम हुए फिरते हैं
इंसानियत मार  चुके
इंसान का तमगा  लिए फिरते है
मनीषा 

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