Pages

Saturday, January 6, 2018

एक ग़ज़ल

कभी एक ग़ज़ल भी बयां नहीं करती मुझे
कभी एक मिसरे में उतर जाता हूँ मैं

वैसे तो एक बंद दरवाज़ा हूँ मैं
तेरी एक दस्तक पर भीतर तक खुल जाता हूँ मैं

नाउम्मीदगी से डगमगायी जब भी कश्ती मेरी
तेरे आसरे पर पार उतर जाता हूँ मैं

बढ़ता हूँ जो चार कदम अपनी मंजिलों की तरफ
उसकी गलियों में अक्सर भटक जाता हूँ मैं

ढूँढता फिरा जिस हमनवाज़ को दर बदर
उस  को अपने ही अक्स में पा जाता हूँ मैं

मांगने जाता हूँ दुआ जो खुदा के दर तक
अपने ही अंदर उतर जाता हूँ मैं

यूँ तो कर लिया था दिल सफ़्फ़ाक मैने
फिर भी उसकी सादगी पर पिघल जाता हूँ मैं

यूँ तो मशहूर हैं ज़माने में मेरी आश्नाई के किस्से
मगर अपनों से निबाहने में अक्सर चूक जाता हूँ मैं

मनीषा वर्मा

No comments:

Post a Comment