अपने आप में तुमसे कितनी बातें करती हूं
फिर भी कितनी बातें रह जाती हैं तुमसे से कहनी
तुम्हारे जवाब मालूम हैं फिर भी कितना कुछ है कहना
चलती हूं रुकती हूं मन ही मन गुनती हूं
और धप से रोक लेती हूं जुबां से फिसलते शब्द।।
कितनी बार लिखीं तुम्हें छोटी छोटी पर्चियां
कभी लिखूंगी एक लंबी सी चिट्ठी भी।।
लेकिन तब तक मेरे इन ख्यालों को तय करना है
शब्दों के एक लंबे सेतू का सफ़र
कुछ विराम कुछ प्रश्नचिन्ह और कुछ संबोधनों
में पिरोना है इन्हे और सौंप देना है तुम्हे।।
विचारों का क्या!
ये तो बेलगाम घोड़े से हैं एक आध छलांग में
तुम तक पहुंच जाते हैं
लेकिन जब शब्दों में इन्हें रोपूंगी ना,
तब तुम सुनना या पढ़ना
मेरे प्रेम की अबूझी भाषा
जानना मुझे और विस्मय से आह्लादित हो जाना।।
तब तक मेरी चुप्पी पढ़ सको अगर तुम
तो चांद को कह देना मेरी छत पर उतर आए।।
मनीषा वर्मा
#गुफ़्तगू