आज फिर मैं जो सफर पर चला
किसी ने लौट कर आने को ना कहा
ना माथा चूमा ना दोनो हाथ उठा आशीष भरा
किसी ने आंचल से नाम आंखे पोछते विदा ना किया
आज फिर जो मैं सफर पर चला।।
ना हाथ में डब्बा था नमकीन भरा
ना घी चुपड़ी रोटी और आचार
ना थी घर की वो पुरानी नेमते
थोड़ी सी रोली चावल की गोदी
और झूठमूठ के वादे और
वो सच्ची कसमें और सख़्त हिदायते
आज जो फिर मैं सफर पर चला।।
ना लौट कर आने को कहने वाले पिता थे
ना ठीक से रहना कहती अम्मा
ना फिर आने को कहती भाभी
ना पीठ थपथपाते भईया
था बस एक सूना द्वार
जर्जर होती जा रही दीवार से झड़ता पलास्तर
और जंग खाता चुप सा जंगला
आज जो फिर मैं सफर पर चला।।
मनीषा वर्मा
#गुफ़्तगू
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteसंयुक्त परिवार के बिना कहाँ मिलेंगी ऐसी नेमतें सौगातें...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भावपूर्ण ।
सच कहा धन्यवाद
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