कितनी सरलता से तुमने
अंकित कर दिए शब्द
और घुमड़ते भावों को दे दिया
एक निश्चित आयाम
एक कोरे कागज़ पर लिख दिया
इस रिश्ते का नाम और अंजाम
पर क्या यह काफी है
उन सभी मूक अभिव्यक्तियों
को व्यक्त करने के लिए
क्या मन के भाव बंधन में बंधे रह जाएँगे
या व्यक्त हो उन्मुक्त हो जाएँगे
शब्दमय अभिव्यक्ति केवल क्षणिक सुख देती है
अनकहे विचार मन में ज्वर भाटे से मचलते हैं
मन के साहिल को कचोटते काटते
क्या मैं इन शब्द सेतू के पार
जान पाऊंगी तुम्हे
या तुम इन शब्दों की परम्परा से मुक्त हो
पारदर्शी हो पाओगे
शब्द सतही हैं
कोरे अक्षर पंगु से सिर्फ
रिश्तो के दायरे मापते हुए
तुम और मैं
इन पूर्व निर्मित वाक्यों में उलझे
मिल नहीं पाते , कहीं गुम हो जाते है अर्थों की सूची में
फिर सप्तपदी के इन वचनों को
मैं क्यों यूं ही मान लूं
मैं क्यों और कैसे विश्वास करूं
और तुम भी क्यों स्वीकार करो
इन भाव विहीन शब्दों में स्पष्ट होते अर्थ
क्यों न तुम और मैं
सिर्फ मूक भावों का ही सम्प्रेषण करें
और मान ले शब्दोंकी असक्षमता को
जो आज इस क्षण से पूर्व
और इस क्षण के बाद
या इस क्षण में भी
हमारे बंधन को समेट नहीं पाएंगे
अपनी सीमित सार्थकता में
एक बार फिर से पहचान करें
मन से मन की बात करे
कुछ तुम मेरी अनकही सुनो
कुछ मैं तुम्हारी आप बीती सुनूँ
फिर से वो पहली मुलाकात करें
चलो शब्दों वाक्यों विधानों से परे
आँखों की आँखों से बात करें
मनीषा
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