सपने मत देखो
सपनों पर पहरे होते हैं।
तुम भूल क्यों जाती हो?,
तुम सिर्फ स्त्री हो
तुम में अपेक्षाएं, महत्त्वकांक्षाऐं
अच्छी नहीं लगतीं।
तुम चुप बहुत अच्छी लगती हो।
बहुत सुंदर , अपने रूप को संवारो
अरे! नहीं, ये क्या कह गई मैं,
रुको, ज़रा पूछ लो उस से पहले
इजाज़त है तुम्हे क्या, संवरने की भी?
नहीं तुम तो विरह वेदना में
व्याकुल भी नहीं हो सकती
जाने किस की नज़र पड़ जाए ।
तुम ना चारदीवारी में ही अच्छी हो
ओह! भूल गई वहां भी कहां
नज़र ही तो है वो तो सात परदे भेद कर भी
तुम तक पहुंच जाएगी।
कभी प्रश्न करेगी तो कभी हिंसा
तुम्हे तो इजाज़त नहीं है बोलने की
तुम सुनो, चुप ही अच्छी लगती हो।
तुम बहुत अच्छी लगती हो कविताओं में,
उपन्यासों में, रचनाओं में, यादों में ,
तुम वहीं रहो, बाहर मत निकलना ।
तुम वहीं अच्छी लगती हो।
सुनो, तुम चुप बहुत अच्छी लगती हो।
मनीषा वर्मा
#गुफ्तगू
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