आज भोर सूरज उगा है
रक्तिम लालिमा लिए
कुछ अपराधी सा
स्वयं को दुत्कारता सा
शायद उदास है
कल फिर एक मासूम झूल गया था
एक फंदे से ।
गुस्से में आ कर विरोध से उसने
स्कूल की बेंच तोड़ी थी
उसने पुकारा था
मेरी तरफ देखो
मुझे सुनो
मैं अकेला हूं
तन्हा हूं
शायद सबसे बुरा हूं
पर मेरी सुनो
सबको इजाज़त दे दी है तुमने
बोर्ड में बैठने की
मुझे भी तो दो एक मौका ।
मेरी गलतियां उफ्फ
कैसे मेरी पीठ
पर कंटीली झाड़ियों सी उग आई हैं
मां की आंखे
पिता के प्रश्न
कैसे होगा प्रायश्चित।
मेरी छोटी छोटी भूलें
जंगल सी आज खड़ी हैं
मेरे सामने
मैं चिल्ला रहा हूं
मेरे साथी तुम मेरी आवाज़
क्यों नहीं सुनते।।
आह! ये पीड़ा
मृत्यु आओ मुझे अपना लो।
कल एक जीवन हार गया
कड़े नियमों के आगे
पता नहीं था उस एक बेंच की कीमत
इतनी अनमोल थी।
अरे रोको कोई इसे
कोई तो कहो
इन आशाओं की बलिवेदी
पर खड़े इन मासूमों से...
सुनो बच्चों
तुम तोड़ दो सारे बेंच
फांद जाओ ये स्कूलों
की दीवारें
छू लो आसमां
और ये जो रस्सियां बुलाती हैं ना तुम्हे
बांधने को,फंदे बुनने को
उन्हें जला डालो
ग्लानि के हर पौधे को
कुचल डालो
सुनो बादलों को गरजते
देखो हवाओं को बदलते
जीवन बड़ा है
मृत्यु से कहीं अधिक विशाल
तुम आवाज देना
ये नीला आसमां
बहुत दूर तक फैला है
इसके नीचे तुम्हारे लिए भी है
एक जगह
चांद सी शीतल
नर्म सी
सुनो मेरे बच्चे
मृत्य जब जब तुम्हें बुलाए
तुम जीवन को चुनना।।
अभी बहुत कुछ है
जो जीने लायक है।।
तुम कल तक रुको तो
देखोगे,
कल उगने वाला सूर्य
सुनहला होगा
रक्तिम लाल नहीं।।
मनीषा वर्मा
#गुफ़्तगू
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteआशावादी अभिव्यक्ति
ReplyDeletevivekoks.blogspot.com
सही कहा... पर सभी कहें न अपने आसपास के निराश होते नवयुवाओं से ..उन्हें देखें सुने ...खुद को साबित करते करते क्या से क्या हुए जा रहे हैं ये...।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सामयिक सृजन ।
धन्यवाद
Deleteजय श्री राम
ReplyDeleteबहुत सुंदर
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