दिन जब लम्बे थे और रातें छोटी
घड़ी के कांटों से बंधे हम ना थे
रात रात तक कहानी किस्से थे
इतने तन्हा तो हम ना थे
दिन की गलियाँ फिरते थे आवारा
दिल से इतने खाली तो हम ना थे
आंखो में उड़ाने थी कदमों में थिरकन थी
राह की उलझनों से वाकिफ तो हम ना थे
पतंगों के पेच थे चकरी और माँजे पर लड़ते थे
रिश्तों के इन पेचीदा भँवरों में उलझे तो हम ना थे
मनीषा वर्मा
घड़ी के कांटों से बंधे हम ना थे
रात रात तक कहानी किस्से थे
इतने तन्हा तो हम ना थे
दिन की गलियाँ फिरते थे आवारा
दिल से इतने खाली तो हम ना थे
आंखो में उड़ाने थी कदमों में थिरकन थी
राह की उलझनों से वाकिफ तो हम ना थे
पतंगों के पेच थे चकरी और माँजे पर लड़ते थे
रिश्तों के इन पेचीदा भँवरों में उलझे तो हम ना थे
मनीषा वर्मा