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Sunday, March 5, 2017

ये बेटियाँ

धान सी उग जाती हैं
जाने किस मिट्टी से बन जाती हैं
ये बेटियाँ
हर दर से जुङ जाती हैं
रौनक किसी घर की भी हों
हर रंग मे रम जाती हैं
ये बेटियाँ
पीहर की फुलवारी चहकाती हैं
पापा का संबल भइया की राखी
माँ का आँचल बन जाती हैं
ये बेटियाँ

मिश्री सी बातों से दिल बहलाती हैं 
कुछ चटपटी कुछ तीखी सी 
पानी में नमक सी घुल जातीं हैं 
ये बेटियाँ  

कच्ची पक्की रोटी सी गुंध जाती हैं 
घर में हाथ बटाती  हैं 
सम्मान की अंगुली पकड़  चाँद तक चढ़ जाती हैं 
ये बेटियां 
झूले की पींगो पर सावन गाती हैं
बाबुल की चुप्पी
माई की मजबूरी समझ जाती हैं
ये बेटियाँ
कितने स्वप्न तकिए पर काढ़ जाती हैं
होठों पर मुस्कान कोरों पर अश्रु लिए
चुपचाप विदा हो जाती हैं
ये बेटियाँ
चिरइया सी उङ जाती हैं
अपनी जीवन गति को अल्पविराम दे
दोनों कुल की लाज निभा जाती हैं
ये बेटियाँ
मनीषा

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