हिंसा और अहिंसा एक ही क्षण में
एक दूसरे से ऐसे बंध गए,
ज़िक्र एक का तो बात दूसरे की भी उठे।
जैसे रात और दिन
जिसने रात की स्याही देखी हो
उसे दिन के उजाले आंखों में चुभते हैं
और आंखे मूंद कर वो फिर एक बार
अंधेरों में अपने खो जाता है।
उन अंधेरों में सुकून है
अंधेरे महफूज़ हैं
दिन में सच दिखता है और
सफेद चादर पर पड़े लाल धब्बों का
सच अब कौन देखना चाहता भी है?
मनीषा वर्मा
#गुफ़्तगू
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