जिस आँगन में खेली मैं उस आंगन को कैसे जर्जर होता देखूँ
जिस ड्योढ़ी पर दीप जलाए उस को कैसे ढहता देखूँ
सूने सूने टूटे दर्पण में तेरा मेरा बीता बचपन देखूँ
धूल भरे उन दीवारों पर अतीत का हर इक पन्ना देखूँ
दरवाज़े की दरारों से झाँकता माँ से अपना होता झगड़ा देखूँ
बिस्तर पर बिछी उसी पुरानी चादर पर अब तक बैठा
वो हम सबका मुस्कुराता लम्हा देखूँ
जिस आँगन में खेली मैं उस आंगन को कैसे जर्जर होता देखूँ
जिस ड्योढ़ी पर दीप जलाए उस को कैसे ढहता देखूँ
उस आंगन में अब पसरा वो गर्द भरा तन्हा सन्नाटा देखूँ
पीछे आँगन में चुप पड़ी वो धूप का टुकड़ा देखूँ
अल्मारी में बन्द पड़ी वो भाभी की चूड़ियाँ देखूँ
बन्द पड़े उस टीवी के रिमोट पर अब तक चढ़ी पन्नी से
महकती वो तेरी मेरी खींचातानी देखूँ
जिस आँगन में खेली मैं उस आंगन को कैसे जर्जर होता
जिस ड्योढ़ी पर दीप जलाए उस को कैसे ढहता देखूँ
टूटती जा रही छत से क्षितिज पर डूबता सूरज देखूँ
ठंडी चादरों पर वो तारों से की जो हर बात पुरानी देखूँ
लोहड़ी की ठंडी पड़ी राख में बस के रह गई जो
पुरानी वो ढोलक की थाप देखूँ
जिस घर से उठी थी मेरी डोली , जिस घर बजी तेरी शहनाई
उस कैसे मैं ढहता देखूँ
जिस आंगन में बांधे वन्दनवार , जिस दरवाज़े सजाई रंगोली
उसे कैसे मैं जर्जर होता देखूँ
जिस आँगन में खेली मैं उस आंगन को कैसे जर्जर होता देखूँ
जिस ड्योढ़ी पर दीप जलाए उस को कैसे ढहता देखूँ
मनीषा वर्मा
#गुफ्तगू