सच और पूरा सच कहाँ मिलता है सिर्फ कफन ओढ़ने से कब खुदा मिलता है खुद से कुछ इस तरह बिछड़ चुके हैं कि अपने चेहरे पर भी अब नकाब ही मिलता है झूठ की आदत हो चली है कुछ इस तरह अब मिलता है सच भी तो बनावट सा लगता है घर के चूल्हे ने बुझा दी है दिलों से सुलगती आंच पराई आग मे हर शख्स अपनी ही रोटियाँ सेंकता दिखता है मनीषा
कभी तो हिन्दू मुसलमां से परे इन्सां बन जाएं
मैं तुम्हारी आयतें पढ़ूँ तुम मेरी गीता कंठस्थ कर लो
जिस भूमि पर गिरा लहू कुछ मेरा कुछ तुम्हारा
चलो उस भूमि पर कुछ धान लगाएं
संगीने छोड़ आज एक बार हल उठाएं
ये जो जलाती है हर बस्ती हर घर को निसदिन
उस लगी आग को मिल बुझाएं
जो बीत चुकी सदियों पहले वो बीती बिसरायें
आज इक क्षण को सिर्फ इंसां बन जाएँ
मनीषा
हम भी बेज़ार बैठे हैं उनके झूठ पर हैरान बैठे हैं मुल्क में हैं मुफलिसी बहुत फिर भी नौजवान बेकार बैठे हैं माना खूबसूरत है ख्याल आपका पर किस गफलत में आप बैठे हैं दे कर कातिल के हाथ में खंज़र गरदन झुकाये मज़लूम बैठे हैं
ले कर गुहार न्याय की हाकिमों से
लोग फिर धरने पर बैठे हैं लुट गया इस बहार में चमन बदलेगा सय्याद इंतजार में परिन्दे बैठे हैं मनीषा