मन से उतरा तो उतार फेंका
पर सोचा क्या कभी
वस्त्र की पीड़ा का भार उठाया कभी
मूक है रोया नहीं कभी
इसलिए ठुकरा सके
पर बंद बकस खोले कभी
सूँघी उसके क्षण क्षण मरते तन की गंध कभी
तुमने तो उठा के फेंका उसे कूड़े पर लापरवाही से
था निरीह अबोध ना कर सका विरोध
ध्यान किया कभी
जब तन में समाए इतराते फिरते थे
सहेजते थे जिसे, जतन से संवार करते थे
नवनीत सुंदर था वह
खूबसूरत , मासूम सा था वह
तुम्हे दे सकता था गौरव समाज का
अगर कहते मेरा अपना है
सबसे प्यारा है
पर आज निष्ठुर सा तुमने उसे
तिरस्कार दिया , नकार दिया
बिका है बेदाम , रौंदा गया पैरों तले
पर कह ना सका दो शब्द भी अपनी कथा
झांकता है वह बेबस
बंद कूड़े के डब्बे से
शौक नही, त्याग नहीं वह तुम्हारा
जिसे अपनाया नहीं उससे क्या मुँह का फेरना
पर सोचा क्या कभी
वस्त्र की पीड़ा का भार उठाया कभी
मनीषा